विचरना मीरा के देश में ख़रामा-ख़रामा
-आनंद पांडेय
मीरा
भक्ति-आंदोलन की सबसे समकालीन लगनेवाली कवयित्री हैं। वे आज भी हमारे मन-मस्तिष्क
को आकर्षित और उत्तेजित करती हैं। उनकी कविता चौंकाती और चकित करती है। उनकी अदम्य
जिजीविषा और विद्रोह का अनंत साहस मानवता की पूँजी है। वे मध्यकाल की सबसे
‘समावेशी’ और पूर्वग्रहमुक्त रचनाधर्मिता हैं। वे हमारी परंपरा की सबसे दुर्धर्ष
स्त्री-स्वर हैं। सत्ता और पितृसत्ता के प्रति मीरा में जो अवहेलना, असहयोग और
विद्रोह का तत्व है, वह विरल है। वे सत्ताओं की सीमाओं, स्वभाव और चरित्र को जिस
तरह पहचानती हैं, वह आज भी आँख खोल देनेवाला है। उनका काव्य आज भी बहुत मूल्यवान
है। वे स्त्रियों की नियति और त्रासदी को समझने के लिए सबसे विश्वसनीय माध्यम हैं।
उनका जीवन-संघर्ष स्त्रियों को मुक्ति, स्वतंत्रता और आत्मसत्ता की पहचान की दिशा
में ले जाता है। उनका काव्य आज के समय में भी पितृसत्ता की श्रृंखलाओं को गलाने की
तपिश से संपन्न है।
मीरा को
न राज-समाज ने अपनाया न इतिहास में कहीं उनका जिक्र है। न उन्होंने अपना कोई पंथ
खड़ा किया न कोई महाकाव्य लिखा, फिर भी उनकी रचनाएँ बची रहीं और बची रही उनकी
कहानी। लोकहृदय और लोकमानस में मीरा अमर रही हैं। भक्तिकाल के आधुनिक अध्येताओं ने
उन्हें भक्तिकाल के श्रेष्ठतम कवियों में से एक पाया। मलिक मुहम्मद जायसी, कबीर,
तुलसी, सूरदास के बाद मीरा का ही नाम आता है। जैसा स्थान उन्हें लोक में मिला रहा
वैसा ही स्थान उन्होंने अकादमिक जगत में पाया। वैचारिक साहस और संवेदना की गहनता
में वे कबीर से होड़ लेती हैं। स्त्रीवादी दृष्टिकोण से वह निरविवाद रूप मे
भक्तिकाल की सर्वश्रेष्ठ रचनाकार हैं। इसीलिए, प्रगतिशील मस्तिष्क और संवेदनशील हृदय
लगातार मीरा के जीवन और कविता की ओर आकर्षित होते रहे हैं। उनकी रचनाएँ और
जीवन-संघर्ष रचनाशील और चिंतनशील मानस को आज भी मुग्ध करती हैं। उनकी लोकप्रियता
और प्रासंगिकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रतिवर्ष उनकी रचनाओं के
न जाने कितने संग्रह आते रहते हैं। अनगिनत शोध-पत्र और आलोचना की पुस्तकें
प्रकाशित होती रहती हैं।
हमारे
समय के एक महत्वपूर्ण बुद्धिजीवी और रचनाकार पंकज बिष्ट भी मीरा की ओर आकर्षित
होते रहे हैं। यों तो मीरा पर उनका कोई व्यवस्थित कार्य सामने नहीं आया है, फिर भी
उनका एक अलक्षित काम है, जो कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण और प्रसंशनीय है। इस आलेख
में उनके इसी काम का आलोचनात्मक अध्ययन किया गया है। यह एक यात्रा-वृत्तांत है, जो
मीरा से जुड़े स्थानों की यात्राओं का आख्यान है। यह केवल यात्रा-वृत्तांत नहीं है
क्योंकि यह इस विधा के परे जाता है। यह मीरा की खोज का एक सफल प्रयास भी है। इसमें
मीरा के जीवन और काव्य पर अंतर्दृष्टिपूर्ण आलोचना भी है। इस तरह लेखक का अपना देश
और काल, मीरा का देश और काल, मीरा की रचनाओं का आलोचनात्मक पुनर्वाचन और संगीत की
परंपरा में मीरा की उपस्थिति की पड़ताल के कई धरातलों पर एक साथ गतिमान यह लेख
वस्तुत: मीरा के ‘सागर’ को ‘गागर’ में भरने का एक विरल कार्य है। मीरा के बारे में
संक्षेप में कुछ सार्थक और मूल्यवान पढ़ना हो, मीरा के जीवन और काव्य के विविध
पक्षों, उनसे जुड़ी सारी सूचनाओं को बिना अकादमिक शुष्कता के जानना हो, उनके काव्य
को समझने की दृष्टि पानी हो, और उनकी रचनाओं का सार-ग्रहण करना हो तो पंकज बिष्ट
के लेख ‘विद्रोह की पगडंडी : मीरा के देश में एक नास्तिक’ से बढ़िया लेखन शायद ही
कोई और मिले।
यों तो इस
लेख में मीरा के देश की यात्रा तथा उनके जीवन और काव्य की आलोचना आपस में गुँथी
हुई हैं, सहचर हैं, फिर भी समझने की सुविधा के लिए यहाँ यात्रा-वृत्तात्मक और
आलोचनात्मक अंशों को अलग-अलग करके पढ़ा जा रहा है। पहले देखते हैं, उनकी मीरा से
संबंधित स्थानों की यात्राएँ।
अपनी
यात्रा के बारे में पंकज बिष्ट लिखते हैं, “यह एक साहित्य प्रेमी की यात्रा थी जो
समकालीन लोकतंत्र के हंगामे और तुमुल कोलाहल के बीचों-बीच से किसी तरह निकल
मध्यकाल की टोह में दूर तक जाना चाहती थी। अपने प्रिय कवि के उस संसार की तलाश में,
जो चार सौ साल पहले रहा था।”1 समाज को गहराई में प्रेरित और प्रभावित करनेवाले
व्यक्तियों से जुड़े स्थलों को देखने, व्यक्तियों से मिलने और चीजों को संग्रहित
करने की प्रवृत्ति स्वाभाविक है। यही स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति पंकज बिष्ट को भी
मीरा का देश घूम आने के लिए प्रेरित करती है। अन्यथा मीरा का पूरा परिचय तो उनकी
रचनाएँ ही देने में सक्षम हैं।
मीरा के
देश से पंकज बिष्ट का आशय है, वे स्थान जहाँ मीरा रही थीं। राजस्थान के मारवाड़
क्षेत्र के मेड़ता नामक कस्बे में मीरा का जन्म हुआ था। ऐसे में यह स्वाभाविक है
कि लेखक-यात्री ने मीरा के जन्म-स्थान को पहला पड़ाव बनाया। मीरा की जन्म-भूमि का
स्पर्श लेखक के लिए कितना काम्य था यह उसने स्वयं ही कहा है, “उस सुबह जब से मैं
जोधपुर से चला था, अजीब उद्वेग और उत्सुकता से भरा था। जैसे मीरा ने मिलना ही है।
या शायद यह नहीं था। मैं उस मिट्टी को छूने जा रहा था जिसमें मीरा पली-बढ़ी थीं।
अरसे से सँजोयी इच्छा जो कुछ ही समय में पूरी होने जा रही थी।”2 मीरा का जन्म मेड़ता में किस स्थान पर हुआ था,
यह सुनिश्चित नहीं है। मीरा के अध्येताओं में इसे लेकर बहुत मतांतर मिलता है।
उन्हें देखने को मिले मेड़ता शहर से बाहर ‘राठौरों के खंडहर होते महल’ जो ‘इतिहास
का इंद्रजाल’ लगते हैं। खंडहर कितना ही भव्य क्यों न हो, होता खंडहर ही है। जितना
ही अधिक लगाव और सम्मान व्यक्ति से होता है उतना ही उस व्यक्ति से जुड़े खंडहर को
देखकर वेदना, पछतावा और निराशा की अनुभूति होती है। पंकज बिष्ट में भी ये भाव उठते
हैं, ‘काश उसे मीरा के स्मारक के तौर पर बचा लिया गया होता।’ मीरा से जुड़ी एक और
विरासत का जिक्र होता है, कस्बे के मध्य में स्थित एक हवेली के मंदिर का। स्थानीय
लोग इसे मीरा का मंदिर मानते हैं, लेकिन यह उतना पुराना नहीं है। न ही कोई
ऐतिहासिक प्रमाण हैं जो इस उक्त दावे को प्रामाणिक सिद्ध कर सकें। ऐसे में इस
‘विरासत’ या ‘स्मारक’ को देखकर एक प्रकार की खीझ ही पैदा होगी। पंकज बिष्ट इस खीझ
से भर गये थे। इसके बाद उनके मन में मीरा के देश में घूमने और उनसे जुड़ी मिट्टी
के स्पर्श की निरर्थकता का भाव पैदा हो गया।
दूसरा
पड़ाव मीरा का ससुराल मेवाड़ है। यहाँ भी एक मीरा-मंदिर है। आदिवाराह के मंदिर को
मीरा मंदिर घोषित कर दिया गया है। चित्तौड़गढ़ के किले और मेवाड़ राजवंश के
साथ-साथ उस समय की राजनीति की अच्छी-खासी जानकारियों से पंकज बिष्ट ने इस प्रसंग
को मिथकों और लीजेंड्स के बजाय इतिहास के धरातल पर रखकर प्रस्तुत किया है। मेवाड़
में मीरा के जीवन-संघर्ष को त्रासपूर्ण बनाने में पितृसत्ता के प्रति उनके
अवहेलनापूर्ण व्यवहार की ही भूमिका नहीं थी, बल्कि इसका एक कारण राजवंश के भीतर
मीरा और हाड़ा रानी, जो किशोर महाराणा विक्रमादित्य की माँ और संरक्षिका थीं, के
बीच सत्ता-संघर्ष भी था। लेखक ने इस पक्ष पर ध्यान नहीं दिया है। और, इसे केवल
पितृसत्ता और स्त्री के संघर्ष के रूप में देखा है। इसी मेवाड़-प्रसंग में ‘जौहर
कुंड’ का हृदयविदारक वर्णन इस लेख का एक मूल्यवान अंश है। मीरा के जीवन-संघर्ष में
सबसे कठिन काल-खंड मेवाड़ का ही है। इन्हें स्त्रियों के अभिशप्त जीवन के व्यापक
परिप्रेक्ष्य में रखकर पंकज बिष्ट ने उस समय के सामंती समाज की स्त्रियों की
जिंदगी के प्रति करुणा और सहानुभूति पैदा करने में अद्भुत सफलता पायी है।
मेवाड़
को असुरक्षित पाकर मीरा वापस मायके यानी मेड़ता चली गयी थीं। वहाँ का सत्ता समीकरण
उनके बिल्कुल विरूद्ध चला गया था। यहाँ तक कि जीवन की सुरक्षा भी संकट में थी।
उनकी कविताओं मे कई जगह उनकी हत्या के प्रयासों का उल्लेख है। मायके जाने का
उद्देश्य था मेड़ता के राठौड़ों से सहायता और समर्थन जुटाना। उस समय तक मेड़ता में
उनके ताऊ राव वीरमदेव का शासन नष्ट हो चुका था। मेड़तिया राठौर स्वयं सत्ता-च्युत
होकर दर-दर की ठोकरें खा रहे थे। ऐसे में मीरा के लिए मेड़ता में भी कोई निरापद
स्थान नहीं बचा था। थोड़े समय बाद ही वे वृंदावन चली जाती हैं। वृंदावन में भी
अधिक दिन नहीं रुकती हैं। धार्मिक कारणों के साथ-साथ इसका एक कारण राजनीतिक भी रहा
होगा। हाड़ा चौहानों का रणथंभौर दुर्ग यहाँ से अधिक दूर नहीं था। उल्लेखनीय है, ये
मीरा से शत्रुता रखते थे। इसलिए, मीरा के लिए वृंदावन भी निरापद नहीं था। वे यहाँ
से द्वारिका चली जाती हैं। यात्रा-वृत्तांत का तीसरा और अंतिम पड़ाव यह द्वारिका
ही है। मीरा के आराध्य कृष्ण की द्वारिका। उनका आध्यात्मिक ससुराल यानी घर,
राज-पाट। द्वारिका में मीरा के जीवन के अनुमानों और संकटों की कल्पना के साथ ही
पंकज बिष्ट ने द्वारिका के इतिहास को भी खँगाला है। मीरा ने द्वारिका में ही अंतिम
साँस ली या दक्षिण की ओर चली गयीं, आज यह सब कुछ अटकल से अधिक कुछ भी नहीं है।
इसलिए, द्वारिका को अंतिम पड़ाव बनाना इतिहास की दृष्टि से उचित है। वृंदावन का
जिक्र करने के बावजूद पंकज बिष्ट ने न यहाँ की यात्रा की और न ही इस पर लिखा। इसके
जो भी कारण रहे हों।
यों तो
यह कह पाना कठिन है कि मीरा धार्मिक तथा आध्यात्मिक जिज्ञासा से और राजनीतिक कोप
से बचने के लिए कहाँ-कहाँ भटकीं फिर भी मीरा के अध्येताओं में इस बात पर लगभग
एकराय है कि मेड़ता, मेवाड़ और द्वारिका में मीरा के जीवन का अधिकांश बीता था।
पंकज बिष्ट ने इन स्थलों की यात्रा करके मीरा की स्मृति और विरासत की खोज तो की ही
साथ में उनकी संक्षिप्त प्रामाणिक जीवनी भी प्रस्तुत की है। जो यह सिद्ध करता है
कि पंकज बिष्ट का मीरा के प्रति बौद्धिक लगाव केवल भावुकता के कारण नहीं है, बल्कि
अध्ययन और अध्यवसाय से पुष्ट है। यात्रा के ये तीन चरण मीरा के जीवन के अन्वेष के
तीन चरण बन जाते हैं। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में मीरा का जीवन ही नहीं बल्कि उनका
परिवेश भी पुनर्सृजित हुआ है। यात्रा के आरम्भ में लेखक में जो भावुकता और
उत्सुकता थी वह चुपके से निर्मम और तटस्थ इतिहास-दृष्टि तथा मीरा और हमारी
समकालीनता की बेबाक आलोचना में रूपांतरित हो जाती है। वे मीरा के देश में घूमते
हैं, तो केवल अतीत या वर्तमान में ही नहीं रमते। मीरा के देश की निरंतरता को भी
रचते हैं। यह मीरा की ही समकालीनता की तलाश नहीं है, बल्कि स्वयं लेखक की
समकालीनता की भी तलाश है। लेखक की इसी समकालीनता में मीरा की विरासत,
स्मृति-विस्मृति, मनन और मूल्यांकन की निरंतरता दृष्टिगोचर होती है।
रचना और
रचनाकार के सामाजिक संदर्भ को महत्व देते हुए भी यह कहना अनुचित नहीं है कि कवि का
देश-संसार तो उसकी रचना में ही होता है। रचना के बाहर उसकी खोज की कोशिश अंतत: निराश
ही करती है। सूरदास का ‘सूरसागर’ पढ़कर कृष्ण-लीला के प्रसंग आज के वृंदावन की
भौगोलिक यात्रा की प्रेरणा तो दे सकते हैं, लेकिन यात्राएँ उसी परिवेश और संस्कृति
की झलक नहीं दे सकतीं, जिनका बखान इस महाकाव्य में हआ है। इसी तरह, ‘रामायण’ के
अनुशीलन के बाद अयोध्या, मिथिला और लंका की यात्राएँ निराश ही करेंगी। मीरा के
बारे में भी यही सच है। उनके व्यतीत होने के चार सौ वर्ष बाद ये यात्राएँ औतसुक्य
तो शांत करती हैं, लेकिन कोई विशेष प्रयोजन नहीं सिद्ध कर पाती हैं। उल्टे एक तरह
का व्यर्थताबोध ही पैदा करती हैं। यह बात एक बार फिर पंकज बिष्ट के अनुभव से सिद्ध
हुई। उनको भी यह बोध यात्रा की निरंतरता में ही हुआ। वे स्वयं लिखते हैं, “अचानक
मीरा के चिन्हों को तलाशने की इच्छा को लेकर मेरे अंदर दुविधा जन्म लेने लगी। मैं
आखिर क्या तलाश रहा हूँ? क्या कवियों के विजय स्तम्भ स्वयं उनकी रचनाएँ नहीं होती
हैं? सत्य यह है कि उनकी रचनाएँ ही उनका जीवन और उनका अंत होती हैं। कोई लेखक
संभवत: अपनी रचना से परे नहीं होता।”3
यात्रा
के पहले इसका भान या ज्ञान पंकज बिष्ट को न रहा हो, ऐसा नहीं हो सकता है। इसके
बावजूद यात्रा की गयी तो इसका कारण ‘मीरा के देश’ का एक यात्रा-वृत्तांत लिखना
नहीं था। यह यात्रा-वृत्तांत उनकी उस यात्रा का केवल साक्षी और साक्ष्य भर है,
काम्य फल नहीं। इसका उद्देश्य इससे वृहत्तर और महत्तर था। लेख के आरंभ में ही उन्होंने
जो लिखा है, उसे पढ़ने से यह बात और पुष्ट होती है। वे लिखते हैं, “नब्बे के दशक
के शुरू से ही मेरी इच्छा रही थी कि मीरा पर कुछ ऐसा काम करूँ जो यथार्थ और गल्प
का मिश्रण हो। यह यात्रा एक परियोजना का अंग थी जो पूरी नहीं हो पायी। किसी कथाकार
के लिए ऐसी विषय-वस्तु से बेहतर और क्या हो सकता है, जिसमें कल्पना का सहारा लेने
की भरपूर गुंजायश हो।”4 ऐसा
लगता है कि पंकज बिष्ट मीरा पर कुछ वैसा ही लिखना का चाहते थे जैसा कि संस्कृत के
कवि बाणभट्ट पर हजारीप्रसाद द्विवेदी का ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ और तुलसीदास पर
अमृतलाल नागर का ‘मानस का हंस’ है। ऐसा हुआ तो साहित्य के लिए यह एक उपलब्धि होती,
लेकिन जो न हुआ उसका फछतावा कैसा! सारा परिश्रम अकारथ चला गया हो, ऐसा भी नहीं है।
इस लेख में उस गल्प और यथार्थ मिश्रित रचना का पूर्वाभास और पूर्वाभ्यास दोनों
मिलता है जो कि, उम्मीद कायम है आज भी, आ सकती है।
जैसा कि
हमने देखा कि बीच यात्रा में लेखक को इस बात का अनुभव हुआ कि मीरा के देश में उनके
चिह्नों को तलाशने से ज्यादा महत्वपूर्ण है उनकी रचना के देश में उनको तलाशना।
उनका यह अनुभव असल में एक पूर्व स्थापित साहित्य-सिद्धांत का ही समर्थन करता है।
यात्रा पूर्ण होने के करीब सोलह साल बाद यह वृत्तांत लिखते समय पंकज बिष्ट ने इस
अनुभव को याद रखा और यात्रा-वृत्तांत के बीच-बीच में उनकी रचनाओं का
अंतर्दृष्टिपूर्ण आलोचनात्मक पाठ भी प्रस्तुत किया। इससे मीरा का संपूर्ण परिचय
मिलता है। रचना का पाठ और भ्रमण साथ-साथ चलते हैं। इस शैली की एक विशेषता यह है कि
यह उन पाठकों को भी रूचिकर लगेगी जो आमतौर आलोचना के पाठक नहीं होते हैं।
मीरा
जिस भक्ति-आंदोलन की उपज हैं, वह अपने स्वरूप में अखिल भारतीय था। काव्य इसकी
अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम था। ये कवि अपनी मातृभाषाओं में रचनाएँ करते हैं,
लेकिन उनकी रचनाएँ उस आंदोलन का अभिन्न अंग हैं जो दक्षिण भारत से शुरू होकर पूरे
देश में फैल गया। इसलिए, मध्यकालीन भक्ति-आंदोलन के किसी भी रचनाकार को ढंग से
समझने के लिए भक्ति-आंदोलन और भक्ति-काव्य की व्यापक और व्यवस्थित समझ पूर्व शर्त
है। पंकज बिष्ट मीरा के काव्य के मर्म का उद्घाटन करने से पहले भक्तिकाल के मुख्य
स्वर को पहचानने से शुरुआत करते हैं। भक्तिकाल की उनकी समझ का सार उनके ही शब्दों
में देखना ठीक रहेगा, “अपने आप में यह देखना भी मज़ेदार है कि भक्तिधारा की मूल
चेतना उदात्त, आध्यात्मिक और दार्शनिक है। दोनों में ही ये सारे तत्व हैं पर दोनों
की अपनी मूल चेतना में विद्रोही न कहें तो भी ‘नॉनकनफर्मिस्ट’ तो हैं ही। बेइंतिहा
सामयिक और व्यक्तिगत। देखा जाय तो एक स्तर पर भक्ति आंदोलन विद्रोह ही तो है।
जातिवाद के खिलाफ, और पितृसत्ता के खिलाफ। कुछ हल्के शब्दों में कहें तो भी भक्ति
के माध्यम से आप एक ऐसे संसार की तलाश कर रहे होते हैं जो आपके यथार्थ से अलग है।”5 भक्तिकाल के बारे में उक्त कथन कुछ सामान्य
विशेषताओं को सामने रखता है। लेकिन, यह निर्गुण भक्तिधारा पर अधिक लागू होता है।
’मध्ययुगीन
भक्ति-आन्दोलन का एक पहलू’ नामक अपने प्रसिद्ध निबंध में मुक्तिबोध सगुण और
निर्गुण भक्ति को क्रमश: उच्चवर्गीयों और निम्नवर्गीयों के बीच संघर्ष के रूप में
देखते हैं। वे निर्गुण भक्ति को प्रगतिशील और सगुण भक्ति को प्रतिक्रियावादी सिद्ध
करते हैं। दोनों में, या यों कहें कि इस आंदोलन के सभी कवियों में कुछ सामान्य
विशेषताएँ हैं, लेकिन इनमें विशिष्टताएँ भी हैं। भक्तिकाल के किसी भी अध्येता के
लिए इन अंतरों के बीच द्वंद्व की उपेक्षा संभव नहीं है। पंकज बिष्ट ने इन
विशिष्टताओं तथा सगुण और निर्गुण के भेद को कबीर, तुलसी और मीरा के बीच तुलना के
माध्यम से रेखांकित किया है। उनके लिए तुलसीदास प्रतिक्रियावादी तो कबीर
क्रांतिकारी हैं। यह तुलना सगुण-निर्गुण के शास्त्रीय भेद के अनुरूप है और उचित
भी, लेकिन मुक्तिबोध के विवेचन और विश्लेषण में मीरा का कहीं उल्लेख नहीं है जबकि पंकज
बिष्ट के विश्लेण में मीरा केन्द्र में हैं। मीरा कृष्ण भक्त थीं। उक्त श्रेणी
विभाजन के आधार पर वे सगुण भक्तिधारा की कवयित्री हैं। लेकिन, मीरा के सामने सगुण-निर्गुण
के इस विभाजन और इससे निकाले गये निष्कर्ष निरर्थक सिद्ध होते हैं। इस विभाजन को
आत्यंतिक रूप से सत्य मान लेने के बाद मीरा को भी सामाजिक प्रतिक्रियावादी मान
लिया जा सकता है। जबकि, उनकी कविता सगुण भक्ति की होते हुए भी सगुण भक्ति के
सामाजिक-दर्शन के विरुद्ध है। मीरा की क्रांतिकारिता और विद्रोह-भावना मुक्तिबोध
के उक्त वर्गीय विश्लेषण की सीमा को रेखांकित करती है। अपने विश्लेषण में
मुक्तिबोध दूर तक सही हैं। उन्होंने भक्ति-आंदोलन की समझ को एक नया आयाम दिया है।
लेकिन, यदि उन्होंने मीरा को भी अपने विश्लेषण में शामिल किया होता तो निश्चय ही उतना
आत्यंतिक वर्गीकरण करना उनके लिए कठिन होता जितना कि उन्होंने किया है। इसके
साथ-साथ उन्होंने सगुण और निर्गुण भक्त कवियों की स्त्री-संवेदनाओं की भी पूर्ण
उपेक्षा की है। स्त्रीवादी दृष्टिकोण से वे दोनों समानरूप से प्रतिक्रियावादी
सिद्ध होते हैं। पंकज बिष्ट ने मीरा को भक्तिकाल के सभी कवियों में सबसे अधिक
क्रांतिकारी और परिवर्तनकामी सिद्ध किया है। मीरा की कविता में समाज के किसी भी
समूह के प्रति न परंपरागत पूर्वग्रह और संवेदनहीनता है और न ही किसी अन्यायपूर्ण
समाज-व्यवस्था का समर्थन। इसलिए, मीरा का भक्तिकाल की सर्वाधिक मुक्तिकामी और
परिवर्तनकामी स्वर के रूप में रेखांकन निश्चय ही भक्तिकाल को पढ़ने और समझने की एक
नवीन दृष्टि का प्रतिपादन है। बिष्ट मीरा की कविता की सामाजिक क्रांतिकारिता को
रेखांकित करते हुए लिखते हैं, “उनकी कविता मात्र एक स्त्री की स्वतंत्रता का
संघर्ष नहीं है बल्कि सामाजिक समानता की पक्षधरता और राजशाही के ख़िलाफ़ विद्रोह
की दुंदुभि है। यह लोकतंत्र की लड़ाई नहीं है पर लोकतंत्र और समानता की ज़रूरत को
रेखांकन जरूर है।”6 मीरा के काव्य में
निहित मानव-मानव के बीच स्तरीकरण और भेदभाव के विरूद्ध तथा सारभौम समतावादी और
मानवीय एकता की विचारधारा को रेखांकित करते हुए पंकज एक जगह और लिखते हैं, “एक और
ध्यान देनेवाली बात यह है कि मीरा यही नहीं कि स्त्री-पुरुष के बीच के नकली अंतर
को नहीं मानतीं, बल्कि वह सामाजिक अंतर में भी विश्वास नहीं रखतीं।”7 पृ 26।
मीरा के
अध्यात्म और भक्ति को पंकज बिष्ट ने एक ‘हथियार’ या रणनीति के रूप में देखा है। उनका
जोर है कि मीरा की केन्द्रीय संवेदना अध्यात्म-साधना नहीं बल्कि जीवन-साधना है। इस
जीवन-साधना को साधने के लिए ही वह अध्यात्म को सुविधा के लिए इस्तेमाल करती हैं।
यदि कोई और उपाय होता तो वे निश्चय ही कृष्णोपासना और भक्ति-भाव का सहारा न लेतीं।
वे लिखते हैं, “मीरा के पूरे काव्य में भक्ति एक बहुत ही सतही और झीनी आड़ है।
उनके पूरे सृजन में आपको कहीं किसी तरह की कोई आध्यात्मिकता, कोई गंभीर दर्शन
देखने को नहीं मिलता। ... मुझे अचानक लगता है संभवत: अगर कोई और रास्ता होता तो वह
भक्ति के आवरण को न अपनातीं।”8
ख़रामा-ख़रामा भक्तिकाल के अध्येताओं में इस तरह के आग्रह आम हैं, क्योंकि वे
भक्ति और अध्यात्म को जीवन से कटाव के रूप में देखते हैं जबकि मीरा और निर्गुण
कवियों के दृष्टिकोण में भक्ति, अध्यात्म और यथार्थ जीवन में कोई विभाजन नहीं है।
उनके लिए रोजमर्रा के जीवन-संघर्ष और भक्ति-साधना एक साथ संभव थी। निपट आधुनिक मन
को यह एकता अटपटी लग सकती है, लेकिन भक्त कवियों के लिए यह बिल्कुल सहज और सामान्य
बात थी। पंकज बिष्ट के लेख का शीर्षक है : ‘विद्रोह की पगडंडी : मीरा के देश में
एक नास्तिक’। इसका अर्थ यहाँ खुलता है। असल में, भक्तिकाव्य को आधुनिक और समकालीन
चित्त के निकट सिद्ध करने के लिए कभी-कभी उसके धर्मनिरपेक्ष और नास्तिक अध्येता इस
तरह के निष्कर्ष आग्रहपूर्वक निकालते हैं। यह भक्त कवियों के सामयिक पाठ से अधिक,
उनके विवेक और संवेदना पर अपने विवेक और संवेदना का आरोपण है। जो कवि धर्मसत्ता,
राजसत्ता और समाजसत्ता सबके कोप से अविचल और निर्भीक होकर अपनी अभिव्यक्ति के लिए
संघर्ष किया करते थे उनके लिए ईश्वर की आड़ कोई सहारा और सुरक्षा नहीं हो सकती थी।
वे बिल्कुल धर्मनिरपेक्ष और अध्यात्मरहित थे, इसका एक हथियार के रूप में सहारा
उन्होंने किसी सुरक्षा या लोकस्वीकृति की लालसा के लिये लिये, ऐसा मानना उन्हें
भीरू और समझौतावादी सिद्ध करने से कम नहीं है। उनके काव्य के समग्र और प्रामाणिक
पाठ के लिए यह जरूरी है कि हम यह मान लें कि उनके लिए जीवन-संघर्ष और भक्ति में
कोई विभाजक रेखा नहीं थी। सांसारिक जीवन में भक्ति बाधक नहीं थी और न ही भक्ति में
सांसारिक जीवन। भक्ति उस समय काव्यरचना और कवियों के जीवन का एक मुहावरा भी थी। जो
उनके लौकिक सत्ता संघर्ष को न तो भोथरा बनाती थी और न ही उनकी बौद्धिकता को दृष्टिहीन
करती थी। यदि ऐसा होता तो भक्तिकाव्य आज भी इतना समकालीन और आधुनिक न लगता और न ही
इस तरह के आग्रह ही देखने में आते। ईश्वरवाद, भक्ति इत्यादि में आस्था होने के
बादजूद ये कवि धर्मसत्ता और धार्मिक विश्वासों-अंधविश्वासों की जैसी और जितनी आलोचना
सके वैसी और उतनी आज के धर्मनिरपेक्ष और नास्तिक कवियों के लिए भी संभव नहीं है।
ईश्वर, भक्ति और आध्यात्मिक होने के बावजूद ये कवि जीवन और संसार की धड़कन को
गहराई में अनुभव कर सके और विश्व-प्रपंच को अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से भेद सके।
इसके
अतिरिक्त मीरा सहित भक्तिकालीन कवियों के लिए भक्ति लोक-परलोक साधने का साधन न
होकर बहुत-सी अन्य चीजों के साथ मनुष्य के सबसे अदम्य और प्रबल भाव, प्रेम-भाव, की
अत्यंत गहन, मार्मिक और वेदनामय दैहिक-ऐंद्रिक अभिव्यक्ति का मुहावरा भी है। यही
नहीं, इनके लिए ईश्वर मनुष्य की व्यक्तिसत्ता के साथ-साथ यौनिकता का आलंबन भी है। भक्त
ईश्वर के शास्त्रोनुमोदित जन्मदाता, पालक और संहारक रूपों से ज्यादा उसे एक ऐसे
मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठित करता है जिसे वह एक मनुष्य की भाँति ही प्रेम कर
सके। प्रेम के धरातल पर यह ख़ुदा और बंदे का नहीं बल्कि बराबरी का संबंध है। कबीर
उसके साथ ‘एकमेक होकर सेज पर सोने’ की कामना करते हैं तो मीरा लोक-लाज और कुल की
मर्यादा को तिलांजलि देकर ’पिया के पलंगा जा पौढ़ूँगी’ का संकल्प लेती हैं। ध्यान
देने की बात यह है कि कवियों के समक्ष ईश्वर के कोप का प्रतिपक्ष नहीं है। अगर कोई
चुनौती है तो वह है लोक-लाज और सामाजिक मर्यादा की, जिसकी कोई परहवा वे वैसे भी
नहीं करते थे। न ही ईश्वर से अनुमति लेकर प्रेम करने की भावना है। कहते हैं कि
ईश्वर की कल्पना स्वयं मनुष्य ने की है। अपने-अपने ऐतिहासिक संदर्भों और आवश्यकताओं
के अनुकूल। भक्त कवियों के लिए भी यह कहावत सही है। कहने की आवश्यकता नहीं कि
उन्होंने अपने ईश्वर गढ़े और मनमुताबिक उससे अपने संबंध तय किये। यहाँ तक कि
प्रेमी और सेक्स पार्टनर के रूप में भी। ऐसा करने की ताकत और साहस धर्मभीरू और
स्वर्ग-लोलुप भक्त नहीं कर सकते थे। भक्त कवियों के बारे में ये बातें केवल अलौकिक
और आध्यात्मिक संदर्भ में नहीं समझी जा सकती हैं, बल्कि लौकिक और सामाजिक संदर्भ
के बिना कवियों की भक्ति के अर्थ नहीं खुल सकते।
यह बहुत
प्रचलित मान्यता है कि मीरा अपने पति को स्वीकार नहीं कर पायीं थीं। वैवाहिक जीवन
में उनकी कोई रुचि नहीं थी। इस मान्यता को प्रतिक्रयावादी और प्रगतिशील दोनों बहुत
अधिक महत्व देते हैं। प्रतिक्रियावादी उन्हें अतिधार्मिक सिद्ध करने के लिए तो
प्रगतिशील अतिक्रांतिकारी बताने के लिए। पहली श्रेणी के विद्वान यह कहते हैं कि
मीरा बचपन से ही कृष्ण-भक्ति में लीन रहती थीं और उन्हें ही अपने पति के रूप में
देखती थीं, इसलिए कुँवर भोजराज से अपने विवाह को मन से स्वीकार नहीं कर पायीं। न
तो उनसे प्रेम किया और न ही शारीरिक संबंध रखा। कुछ प्रगतिशील विद्वान यह कहते हैं
कि मीरा पितृसत्ता की विरोधी थीं और चूँकि विवाह और संतानोत्पत्ति पितृसत्ता के
आधार हैं, इसलिए मीरा ने विवाह-संस्था के अस्वीकार के माध्यम से पितृसत्ता के इन
आधारों को हिला दिया था। विवाह के बाद पत्नी के रूप में अपनी भूमिका न निभाना
पितृसत्ता के विरूद्ध सत्याग्रह था। दोनों यह भी मानते हैं कि मीरा का यह व्यवहार
ससुराल में उनके विरोध का एक प्रमुख कारण था। पंकज बिष्ट भी अपने विश्लेषण के
द्वारा इसी मान्यता को पुष्ट करते हैं। वे लिखते हैं, “मीरा का विरोध अपने देवरों
से ही नहीं था। वह अपने पति को भी स्वीकार नहीं कर पाईं थीं। औरत को आखिर क्या
चाहिए? अच्छा पति, अच्छा घर! जिसकी छाया में वह खामोश जी सके और उतनी ही बेआवाज़
मौत मर सके। पितृसत्ता निर्धारित स्त्री-सुख का यह मानदंड मीरा सिरे से खारिज़ कर
देती हैं। इस अस्वीकार के पीछे सिर्फ़ एक ही माँग है, और वह है अपने हिसाब सा जीवन
जीने की कामना।”9
इस धारणा के विपरीत मीरा के जीवन के कुछ ऐतिहासिक संदर्भों और तथ्यों के
आधार पर मीरा के कुछ अध्येताओं ने यह दिखाया है कि मीरा के वैवाहिक जीवन से जुड़ी
उक्त धारणा भ्रामक है। इसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है। इसको प्रचलित
करने के पीछे एक ही कारण प्रतीत होता है कि कृष्ण के प्रति उनकी भक्ति और समर्पण
तभी आदर्श रूप में दिखाये जा सकते थे जब उनके विवाह को केवल सांसारिक दिखावा सिद्ध
किया जाय। ऐसे अध्येताओं ने यह भी दिखाया है कि मीरा की कृष्ण-भक्ति उनके विधवा
होने के बाद शुरू होती है, न कि होश सँभालने के बाद से ही। मीरा ने पति की असामयिक
मृत्यु के बाद राजपूती परंपरा के अनुसार सती किये जाने से बचने के लिए अपने को
कृष्णार्पित बताया और कहा कि वे केवल कृष्ण को अपना पति मानती हैं। मीरा के युवा
अध्येता अरविन्द सिंह तेजावत बड़े विश्वसनीय ढंग से सिद्ध करते हैं कि पति के जीवनपर्यंत
उनका विवाहित जीवन सामान्य था। वे लिखते हैं, “पति के प्रति मीरा का प्रेम उसकी
शक्ति थी। स्वाधिकारों की चेतना स्त्री की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष हेतु प्रेरित
तो करती है किंतु पुरुष को प्रति घृणा नहीं सिखाती। मीरा ने स्वाधिकार रक्षा एवं
स्त्री-स्वतंत्रता के लिए संघर्ष तो किया किंतु पति से घृणा नहीं की। वास्तव में
चित्तौड़गढ़ में मीरा की हैसियत एवं स्थिति मीरां के उसके पति के साथ संबंधों पर
निर्भर थी।”10 कृष्णार्पित मीरा की छवि को चमकाने के लिए उनके विवाह के बारे में
अनैतिहासिक बातों का प्रचार भक्ति और भक्तमाल परंपरा ने किये। उन्हीं के आधार पर
प्रगतिशील अध्येताओं ने मीरा के बारे में सर्वथा भिन्न निष्कर्ष निकाले। यह दो
सर्वथा विरोधी विचार-परंपराओं द्वारा मीरा के आत्मसातीकरण का एक रोचक उदाहरण है।
पंकज बिष्ट ने मीरा की विद्रोही प्रवृत्ति को ‘मीरा-भाव’ सिद्ध
किया है। उनके अनुसार स्थापित व्यवस्था, लोक-लाज, पितृसत्ता
के प्रति विद्रोह उनके काव्य का प्रधान स्वर है। उन्होंने मीरा के इस पक्ष को
भलीभाँति विश्लेषित किया है। किसी भी विद्रोही की तरह मीरा भी आत्मसत्ता को
स्वायत्त और स्वतंत्र रखने के लिए राजसत्ता, पितृसत्ता, धर्मसत्ता इत्यादि सभी
प्रकार की सत्ताओं को चुनौती दी और अपनी स्वतंत्र व्यक्तिसत्ता को स्थापित किया।
जाहिर है, एक साथ सभी सत्ताओं से लोहा लेना अपने को नितांत अकेली कर लेना था,
बल्कि मृत्यु को भी आमंत्रण देना था। मीरा ने यह सब भोगा फिर भी न झुकीं, न समझौता
किया। उनके ऊपर सत्ता या राज्य-निर्णय थोपने के प्रयत्न मेड़ता-मेवाड़ से लेकर
द्वारिका तक हुए। इन प्रयत्नों के समानांतर वे लगातार अपनी आत्म-निर्णय की सत्ता
को सुरक्षित रखने के लिए जूझती रहीं। पंकज बिष्ट ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि ‘समाज-निर्धारित
भूमिका के ख़िलाफ़’ मीरा का विद्रोह “आत्म-निर्णय की आज़ादी की ललक है।”11 उनका जीवन सामान्य स्त्री का जीवन नहीं था। राज-समाज
की होने के बावजूद उन्हें समाज के केन्द्र या मुख्यधारा से बहिष्कृत और निर्वासित किया
गया था। फिर भी, उनके जीवट और संघर्ष-क्षमता ने उनके हाशिये पर फेंक दिये गये जीवन
को आनेवाली पीढ़ियों की संवेदना में केन्द्रीय स्थान दिलाये।
मीरा-काव्य की पंकज बिष्ट की आलोचना का एक
उज्ज्वल पक्ष वहाँ दिखता है जहाँ वे मीरा की कविता की ऐंद्रिकता, काम-भावना और
प्रकृति-प्रेम की मार्मिक व्याख्या करते हैं तथा उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में
अंतर्निहित रोमांटिकता को रेखांकित करते हैं। उनके समतावादी विचार, विद्रोह और
आदर्शवाद में भी वे उनकी रोमांटिकता को कारक के रूप में देखते हैं।
अपनी यात्राओं के वृत्तांतों और मीरा के
जीवन-प्रसंगों के अन्वेषण-विश्लेषण के मध्य पंकज बिष्ट ने मीरा की रचनाओं पर विचार
करने के पर्याप्त अवसर जुटाए और जो भी लिखा, मूल्यवान लिखा। उनका यह
यात्रा-वृत्तांत, यात्रा-वृत्तांत के अतिरिक्त जीवनी और आलोचना जैसी साहित्यिक
विधाओं, स्थापत्य, संगीत और गायन जैसी कलाओं तथा राजनीति और इतिहास जैसे अनुशासनों
को एक साथ साध सकने की उनकी प्रतिभा और कौशल का एक नायाब नमूना है। और, ठीक इसी
कारण यह मीरा पर एक अद्वितीय और विशिष्ट कृति है।
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1.
ख़रामा ख़रामा, पंकज
बिष्ट, अंतिका प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद, 2012, पृ 21।
2.
वही, पृ 26।
3.
वही, पृ 31।
4.
वही, पृ 19।
5.
वही, पृ 21।
6.
वही, पृ 22।
7.
वही, पृ 27।
8.
वही, पृ 26।
9.
वही, पृ 26।
10.
मीरां का जीवन,
अरविंद सिंह तेजावत, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2015, पृ 19।
11.
ख़रामा ख़रामा, पंकज
बिष्ट, अंतिका प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद, 2012, पृ 26।