बुधवार, 29 अक्तूबर 2008

मैं कवि हूं

मैं कवि हूं
तोडूंगा दायरे।
०२.०३.२००५

मैं कवि हूं

किनारे कटते रहे

किनारे कटते रहे
धारा ने
सागर में मिलकर
अपनी प्यास बुझा ली।
०१.०३.२००५

हम ओस की बूंदें

हम ओस की बूंदें हैं .....
जो रात में दिखतीं भी नहीं
लेकिन,
सुबह होते ही
सोना बन जाती हैं।
०३.०३.२००५

राजनीति और मनुष्य

राजनीति से बाहर हो गया है मनुष्य—
"मानुष-सत्य'
बच गया हे केवल
मनुष्य का कुल- गोत्र
धर्म-कर्म
यानी --
राजनीति के जगत से मनुष्य
अपनी केंचुल / अपनी ऊपरी पहचान को
छोड्कर कहीं और चला गया है.
मैं खोजता हूँ.....
कहाँ गया और क्यों ?
लेकिन, देखता हूँ
आदमी का चला जाना नहीं
उसकी केंचुलें और पहचानें
राजनीति का मुद्दा बनी हुई है.
१०.०२.२००६

विचरना मीरा के देश में ख़रामा-ख़रामा

विचरना मीरा के देश में ख़रामा-ख़रामा -आनंद पांडेय मीरा भक्ति-आंदोलन की सबसे समकालीन लगनेवाली कवयित्री हैं। वे आज भी हमारे मन-मस्तिष्क को...