शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

संसदेतर राजनीति का लोकतंत्र

संसदेतर राजनीति का लोकतंत्र

आनंद पांडेय


अन्ना हजारे का जन लोकपाल भले ही संसद ने पारित न किया हो और उन्हें अपने अनशन को बीच में ही समाप्त कर दीर्घकालिक राजनीतिक कार्यवाई की घोषणा के लिए बाध्य होना पड़ा हो लेकिन वे अपने उद्देश्य और प्रयास में असफल नहीं माने जा सकते हैं। उन्होंने संसद और राजनीतिक दलों की राजनीति के बरक्स संसदेतर राजनीति को जो नया आयाम दिया है वह अपने समय की एक परिघटना है। इस तरह की राजनीति, जो अपने चरित्र में लोकतांत्रिक तो है लेकिन असंसदीय नहीं, संसदेतर है, का भारत में पिछले कई दशकों में विकास हुआ है। इसने लोकतंत्र के घटते राजनीतिक स्पेस को भरने का काम किया है। असल में लोकतंत्र का अपने देश में जिस तरह से विकास हुआ उससे इस तरह की राजनीति के लिए जगह तैयार हुई है। आप इसे सिविल सोसाइटी कहें या गैर सरकारी संस्थाओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा लेकिन इतना तो तय है कि ऐसी राजनीति अब सभी तरह की लोकतांत्रिक वैधताओं के साथ एक लोकप्रिय समानांतर सत्ता बन गई है। आज जनता जिसके पास संसदीय लोकतंत्र में सिर्फ दो-चार दलों का विकल्प था, एक नये लोकतांत्रिक हथियार से लैश हो गई है। ऐसे दलों के पाले-दर-पाले में वह वैसे ही गिरती रहती थी जैसे गेंद, लेकिन अब वह जो काम राजनीतिक दलों से नहीं ले सकती वह ऐसे संगठनों से ले सकती है जैसे अन्ना हजारे ने लिया है।

संसदेतर राजनीति की एक पूरक लोकतांत्रिक राजनीति के रूप में सिविल सोसाइटी की उपस्थिति जहां स्पष्ट है वहीं इसका स्वरूप और विचारधारा अस्पष्ट है। इसने कई सवाल उठाए हैं जिनका जवाब शायद उतना स्पष्ट नहीं हो जितना कि स्वयं ये सवाल हैं। सिविल सोसाइटी या गैर सरकारी संगठन की राजनीतिक भूमिका के उदय एवं विकास के ऐतिहासिक, राजनीतिक एवं सामाजिक कारण क्या हैं? ऐसी राजनीति का सरोकार क्या है? ऐसी राजनीति की विचारधारा क्या है? इसकी प्रतिबद्धता किसके प्रति है? ऐसी राजनीति का संगठन कैसा है? इसका सामाजिक आधार क्या है? संसदीय राजनीति से इसका संबंध कैसा है? इसका वर्ग-चरित्र और जाति-चरित्र कैसा है? इत्यादि प्रश्नों पर विचार करने का समय आ गया है। लगभग नौ महीने चले अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन पर इन सवालों को लगातार उठाया गया है और उनके उत्तर भी दिये गये हैं। कभी इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की ओर से सफाई के रूप में तो कभी विरोधियों और आलोचकों की ओर से सवाल या आशंका के रूप में। ये सवाल-जवाब अपनी जगह पर हैं और हमारे समय के राजनीतिक यथार्थ एवं स्थिति को स्पष्ट करते हैं। यहां एक सामान्य विवेचन पेश किया जा रहा है।

इस तरह की अवधारणा या परिघटना के उद्भव और विकास के प्राचीन और पश्चिमी परिप्रेक्ष्य को सुविधा के लिए छोड़कर समकालीन भारतीय राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को लें तो इसे समझना सरल होगा। इसे समझने के लिए इस सवाल का सहारा लें कि यह किसकी भूमिका अदा कर रहा है? यह एक राजनीतिक मांग को पूरा करने के लिए गैर सरकारी संगठनों की मांग भी है, एक समाजसेवी बुजुर्ग की भ्रष्टाचार के विरूद्ध संघर्ष भी है और मध्यवर्गीय लोगों का आन्दोलन भी है। यह शासन के वर्तमान भ्रष्ट रूप को उजागर करता है और एक पारदर्शी व्यवस्था की मांग करता है। यों तो इस तरह के आन्दोलन वर्तमान भारतीय जीवन के सामाजिक और राजनीतिक लगभग सभी पक्षों को लेकर चल रहे हैं ; मसलन पर्यावरण का प्रश्न, आदिवासी हितों का प्रश्न, मानवाधिकार का प्रश्न, विकास एवं पूंजीवादी शोषण का प्रश्न, सूचना के अधिकार का प्रश्न, रोजगार एवं भूख का प्रश्न इत्यादि सभी कुछ पर इस तरह के प्रयास चल रहे हैं जो सरकार की उपेक्षा या उसकी समझ के कारण उसकी प्राथमिकता में नहीं हैं लेकिन जैसी लोकप्रियता भ्रष्टाचार विरोधी और लोकपाल गठित करने की मांग करने वाले अन्ना हजारे के आन्दोलन को मिली वैसी किसी को नहीं। अपनी व्यापकता और प्रभाव में यह एक अखिल भारतीय आन्दोलन था। संसद और राजनीतिक दलों को लगभग नौ महीने तक जितना इसने उलझाये रखा उतना किसी और आन्दोलन ने नहीं किया। इस आन्दोलन ने इस तरह की संसदेतर लोकतांत्रिक राजनीति की नयी संभावनाओं के द्वार खोले हैं।

कभी इसे जन आन्दोलन का नाम दिया जाता है तो कभी इसे समाज कर्म का लेकिन यह सब एक खास तरह की राजनीति है जो अपने आप में क्रांतिकारी नहीं होते हुए भी सुधारवादी है, हालात में परिवर्तन की हामी है। इसका तेवर लोकतांत्रिक है, इसमें सरकारी राजनीति की तुलना में संवेदनशीलता, प्रतिबद्धता और ईमानदारी अधिक है इसलिए मध्यवर्ग को यह राजनीति अधिक विश्वसनीय लगती है। कुछ असंभव नहीं कि राजनीतिक दलों से थके और निराश मध्यवर्ग अपने लिए इसे और अधिक संगठित करे, संवारे और सरकारों के लिए मनमानी मुश्किल कर दे। उन लोगों के लिए नया मंच बन जाय जो लोग राजनीति तो करना चाहते हैं लेकिन उतना पतित होने को तैयार नहीं हैं जितना नैतिक पतन राजनीति में कामयाब होने के लिए जरूरी हो गई है। एक नये तरह के नेता बनने का मौका ये आन्दोलन देते हैं। मेधा पाटकर, अरूणा राय, अन्ना हजारे, अरविन्द केजरीवाल इत्यादि के नाम किस नेता से कम लोकप्रिय हैं या किस नेता की तुलना में इनका स्टार वैल्यू कम है?

संसद को जिस तरह से इस आन्दोलन ने लोकपाल विधेयक पास करने के लिए बाध्य किया और अपनी शक्ति से निर्देशित किया उससे कुछ सांसद, नेता और बुद्धिजीवी यह मानते हैं कि यह संसदीय राजनीति को समाप्त करने वाला आन्दोलन है। कुछ लोग और आगे गये, खासतौर पर दलितों का एक हिस्सा जो यह प्रचारित करने लगा कि यह बाबा साहेब के संविधान को नष्ट करने का षड्यंत्र है। लालू प्रसाद यादव ने कहा कि ये लोग- टीम अन्ना- तानाशाह हैं और संसद पर ताला लगा देना चाहते हैं। प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में यह आन्दोलन संसदीय राजनीति को समाप्त करना चाहता है या लोकतंत्र को समाप्त करने के षड्यंत्र का हिस्सा है? कुछ की नजर में अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र। हां, इन चेहरों को चमकाने में अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का योगदान अधिक है, इन्हें सेलिब्रेटी के रूप में पहचान भी पश्चिम या अमेरिका ने सुरस्कृत-सम्मानित करके दी। इनके काम से किसी को इन्कार नहीं इसलिए किसी अंतर्राष्ट्रीय इशारे से भी कोई सहज इंकार नहीं कर सकता। लेकिन इस तरह की राजनीति या आन्दोलन के सामाजिक आधार और वर्गीय चरित्र को देखकर यह नहीं कहा जा सकता है कि ये असंसदीय या लोकतंत्र विरोधी हैं। जिस सामाजिक तबके का समर्थन इसे सबसे अधिक था उसमें मध्यवर्ग और मीडिया को सबसे आगे रखा जा सकता है। फिर भी विविध जातियों और वर्गों, सामाजिक समूहों की सहानुभूति और समर्थन इस आन्दोलन को मिला है। इस आन्दोलन का सामाजिक आधार इतना विविध और संश्लिष्ट है, अंतविर्रोधी भी, कि यह किसी तरह के लोकतंत्र विरोधी होने की संभावना को संजो ही नहीं सकता- चाह कर भी।

यह उल्लेखनीय है कि अपने उद्देश्य और चरित्र में यह आन्दोलन न केवल संसदीय आन्दोलन है बल्कि संसदीय राजनीति का पूरक भी है. भ्रष्टाचार के दीमक और घुन से मुक्त कर संसदीय राजनीति को फिर से चमकाने और धार देना ही जाने या अनजाने इस आन्दोलन का चरित्र और नियति है, शायद नीयत भी. निजी तौर पर भी इस आन्दोलन के संगठनकर्त्ता और नेता आमूल व्यवस्था-विरोधी या क्रान्तिकारी नहीं हैं, जैसे माओवादी-नक्सलवादी होते हैं या फिर दक्षिणपंथी-फासीवादी. अन्ना हजारे सेना में थे तो किरण बेदी और अरविन्द केजरीवाल राज्य का सबसे अधिक प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाओं, पुलिस और अफसरशाही में बड़े पदों पर रहे हैं. शांति भूषण केंद्र में मंत्री रहे और वकालत करते हैं. उनके बेटे प्रशांत भूषण भी भारतीय दंड संहिता का व्यापार करते हैं. कुलमिलाकर कहा जाय तो ये सब-के-सब व्यवस्था का अंग हैं या रहे हैं. इसी तरह मुख्यधारा के सिविल सोसाइटी के अधिकांश संगठनों का व्यवस्था से सम्बन्ध है या रहा है. ऐसे आंदोलनों का नुकसान तात्कालिक रूप से किसी भी राजनीतिक दल को हो या सभी दलों का हो क्योंकि कोई नया दल अस्तित्त्व में आ जाय. किन दीर्घकालिक फायदा संसदीय प्रणाली का ही होता है या होगा. शायद इसी कारण कुछ माओवादी और व्यवस्था विरोधी इस आन्दोलन का विरोध कर रहे हैं क्योंकि ऐसे आन्दोलन व्यवस्था की सड़न को दूर करते हैं और ताजगी प्रदान करते हैं, जिससे वह दीर्घजीवी हो उठती है.

सरकारों और राजनीतिक दलों ने गैरसरकारी संगठनों और सिविल सोसाइटी के सदस्यों को अपनी तरह से स्वीकृति और वैधता दी है। पिछले दो दशकों में सिविल सोसाइटी की हैसियत, ताकत और लोकप्रियता को बढ़ाने में सरकार और मुख्यधारा दलों का सकारात्मक-नकारात्मक सहयोग भी काफी हद तक जिम्मेदार रहा है। इसका प्रमाण यह है कि पिछली यूपीए सरकार जिन उपलब्धियों को लेकर गौरवन्वित महसूस करती थी और जो उसके दुबारा चुने जाने में मददगार बनीं उनमें से कई सिविल सोसाइटी के आंदोलनों और मांगों की उपज थींण् सूचना का अधिकार ;अरुणा रॉयद्धए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ;ज्यां द्रेज़द्धए फरह नकवी और हर्ष मंदर सांप्रदायिक हिंसा ;रोकथामए नियंत्रण और पीड़ितों के पुनर्वासद्ध विधेयक इत्यादि का नाम लिया जा सकता हैण् सिविल सोसाइटी को अगर कार्पोरेट सेक्टर के बरक्स देखा जाय तो इसकी वास्तविक शक्ति का पता चलेगाण् आज सरकार को एक तरफ कार्पोरेट सेक्टर की बातें और मांगें मनानी पड़ रही है तो दूसरी तरफ सिविल सोसाइटी कीण् राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् की भूमिका कस बरक्स सरकार के तमाम सलाहकार और पदाधिकारियों के बारे में यही बात लागू होती हैण् प्रधानमंत्री समेत मोंटेक सिंह अहलूवालिया और पी चिदंबरम, कौशिक बासु, नंदन निलेकनी आदि कार्पोरेट सेक्टर के हिमायती हैं तो सलाहकार परिषद सिविल सोसाइटी के कार्यकर्र्ताओं के कारण जनता की या वैकल्पिक नीतियों की हिमायती है. एक तरह से इसे कार्पोरेट सेक्टर और सिविल सोसाइटी के बीच संतुलन बनाने का माध्यम भी माना जा सकता है और प्रकारांतर से पूंजीवादी नीतियों और जनवादी नीतियों के बीच भीण् सरकार क्यों अपनी कल्पना शक्ति में इतनी कमजोर हो गयी है कि वह बस मुहर लगाने वाली संस्था हो गयी है. संसद के बारे में भी यही सही हैण् इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो अर्द्ध औपनिवेशिक स्थिति में नव साम्राज्यवाद और उदारीकरण की नीतियों ने जहाँ सरकार की हैसियत को दोयम दर्जे का बना दिया और उसे लगभग जनविरोधी बना दिया है तो सरकारों की सामाजिक और वैचारिक भूमिका को सिविल सोसाइटी ने अपने हाथ में लिया है.
प्रश्न यह उठता है कि सिविल सोसाइटी की बढ़ती शक्ति और लोकप्रियता का राज क्या है? सबसे महत्वपूर्ण बात तो यही कि राजनीतिक पतन ने इसके लिए रास्ता तैयार किया. संसदीय लोकतंत्र पार्टियों की आंतरिक राजनीति का दर्पण होता है. बेहतर राजनीतिक दलों के बिना संसदीय राजनीति सफल नहीं हो सकती. आज का संकट दलों के राजीतिक स्तर का प्रतिफल है. राजनीतिक दलों की कार्य-प्रणाली ऐसी हो गयी जिसमें वैचारिक, सज्जन और नैतिक लोगों के लिए जगह ही नहीं रह गयी. पार्टियों में जाति, धर्म और धन-बल,बाहु-बल के आधार पर जगह बनने लगी. कार्पोरेट जगत ने अपने लिए काम करने वाले नेताओं को चिन्हित कर लिया. नेताओं में कार्पोरेट जगत के सबसे करीबी होने की स्पर्द्धा होने लगी. ऐसे में जो व्यक्ति सैद्धांतिक लाइन लेने वाले थेए कार्पोरेट के हाथ बिकने और मतदाताओं को खरीदने की हद तक नहीं गिर सकते थे, उनके लिए दलों में कोई जगह नहीं बची. राजनीति में विचारधारा और सिद्धांत का अंत हो गया. अवसरवाद एकमात्र सिद्धांत और पूंजीवाद एकमात्र विचारधारा हो गयी. ऐसे परिवेश में जो लोग कुछ अलग करना चाहते थे उनके लिए एक मात्र रास्ता बचाए गैर सरकारी संगठन बनाकर काम करो. आज जनांदोलन राजनीतिक दल नहीं, ये संगठन कर रहे हैं. राजनीतिक दलों ने ऐसे लोगों को साथ रखने की योग्यता दिखाई होती तो सिविल सोसाइटी के बहुत सारे चेहरे उनके साथ होते! आखिर उनको संसदीय लोकतंत्र से कोई सैद्धांतिक दिक्कत तो है नहीं.

अन्ना हजारे के आन्दोलन की विचारधारा की बात करें तो यह स्पष्ट होगा कि इसकी कोई संगठित विचारधारा नहीं है। राष्ट्रीय प्रतीकों और गांधीवाद के ’रेटॉरिक’ के आवरण में यह कुछ व्यक्तियों का एक राष्ट्रीय समस्या के निदान के लिए सामूहिक सहयोग अधिक है। इस आन्दोलन के नेता यह कहते रहे कि वे राजनीति से दूर हैं लेकिन वे राजनीति से दूर न होकर मोट-मोटी दलीय राजनीति से दूर जरूर हैं। एक अर्थ में वे जरूर अराजनीतिक हैं। वह अर्थ है एक खास विचारधारा के आधार पर संगठित न होने का। यह अराजनीतिक होती भारतीय राजनीति परिदृष्य का एक और रोचक उदाहरण पेश करती है जिसमें विचारधारा से अधिक विचार महत्वूपर्ण होते हैं और सामान्य कारण के लिए लोग इकट्ठे होते हैं। लेकिन पूंजीवाद के प्रति इनका क्या दृष्टिकोण है? कुछ साफ नहीं। इससे यह स्पष्ट होता है कि मुख्यधारा के राजनीतिक दलों की तरह यह भी तरह तरह के कॉस्मेटिक मुद्दों की राजनीति में उलझा है और पूंजीवाद के खिलाफ कोई संकट बनने से बचना चाहता है। वरना किसको मालुम नहीं कि इतने बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के लिए औपनिवेशिक विरासत और अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवाद और भारत की नव आर्थिक नीतियां ही जिम्मेदार हैं और किसी एक संस्था और विधान के निर्माण से भ्रष्टाचार को नहीं मिटाया जा सकता है। अगर वे पूंजीवाद के खिलाफ उठना चाहते तो भ्रष्टाचार विरोध की तार्किक परिणति अनिवार्यतः नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के विरोध में होती। सिर्फ एक लोकपाल के गठन में निश्चय ही नहीं। अब हो सकता है कि राजनीतिक दल या नेता घूस न लें और मुफ्त में भ्रष्टाचार करें और पूंजीपतियों को लाबिइंग का खर्च भी न देना पड़े। अफसरशाही और व्यवस्था में जो घूसखोरी और दलाली की संरचनात्मक पंरपरा है उसके समाप्त होने की संभावना तो नहीं लगती।

सिविल सोसाइटी आन्दोलन की जीत-हार और शक्ति-सीमा को इस परिप्रेक्ष्य में देखने पर यह स्पष्ट होता है कि इस देश में आने वाले दिनों में संसदेतर राजनीति और अधिक सुदृढ़ होगी और जनता को यह आश्वासन रहेगा कि वह विकल्पहीन नहीं है, उसके पास विकल्प हैं। बावजूद इसके कि यह विकल्प भी उन ताकतों के हाथों का खिलौना जरूर बना रहेगा जिनके हाथों में दुनिया भर की संसदीय राजनीति बंजर हो गई है और संसदीय राजनीति के बारे में महात्मा गांधी की मान्यताओं को सही साबित कर दिया है।

विचरना मीरा के देश में ख़रामा-ख़रामा

विचरना मीरा के देश में ख़रामा-ख़रामा -आनंद पांडेय मीरा भक्ति-आंदोलन की सबसे समकालीन लगनेवाली कवयित्री हैं। वे आज भी हमारे मन-मस्तिष्क को...