शनिवार, 1 अगस्त 2020

विचरना मीरा के देश में ख़रामा-ख़रामा

विचरना मीरा के देश में ख़रामा-ख़रामा

-आनंद पांडेय

मीरा भक्ति-आंदोलन की सबसे समकालीन लगनेवाली कवयित्री हैं। वे आज भी हमारे मन-मस्तिष्क को आकर्षित और उत्तेजित करती हैं। उनकी कविता चौंकाती और चकित करती है। उनकी अदम्य जिजीविषा और विद्रोह का अनंत साहस मानवता की पूँजी है। वे मध्यकाल की सबसे ‘समावेशी’ और पूर्वग्रहमुक्त रचनाधर्मिता हैं। वे हमारी परंपरा की सबसे दुर्धर्ष स्त्री-स्वर हैं। सत्ता और पितृसत्ता के प्रति मीरा में जो अवहेलना, असहयोग और विद्रोह का तत्व है, वह विरल है। वे सत्ताओं की सीमाओं, स्वभाव और चरित्र को जिस तरह पहचानती हैं, वह आज भी आँख खोल देनेवाला है। उनका काव्य आज भी बहुत मूल्यवान है। वे स्त्रियों की नियति और त्रासदी को समझने के लिए सबसे विश्वसनीय माध्यम हैं। उनका जीवन-संघर्ष स्त्रियों को मुक्ति, स्वतंत्रता और आत्मसत्ता की पहचान की दिशा में ले जाता है। उनका काव्य आज के समय में भी पितृसत्ता की श्रृंखलाओं को गलाने की तपिश से संपन्न है।

मीरा को न राज-समाज ने अपनाया न इतिहास में कहीं उनका जिक्र है। न उन्होंने अपना कोई पंथ खड़ा किया न कोई महाकाव्य लिखा, फिर भी उनकी रचनाएँ बची रहीं और बची रही उनकी कहानी। लोकहृदय और लोकमानस में मीरा अमर रही हैं। भक्तिकाल के आधुनिक अध्येताओं ने उन्हें भक्तिकाल के श्रेष्ठतम कवियों में से एक पाया। मलिक मुहम्मद जायसी, कबीर, तुलसी, सूरदास के बाद मीरा का ही नाम आता है। जैसा स्थान उन्हें लोक में मिला रहा वैसा ही स्थान उन्होंने अकादमिक जगत में पाया। वैचारिक साहस और संवेदना की गहनता में वे कबीर से होड़ लेती हैं। स्त्रीवादी दृष्टिकोण से वह निरविवाद रूप मे भक्तिकाल की सर्वश्रेष्ठ रचनाकार हैं। इसीलिए, प्रगतिशील मस्तिष्क और संवेदनशील हृदय लगातार मीरा के जीवन और कविता की ओर आकर्षित होते रहे हैं। उनकी रचनाएँ और जीवन-संघर्ष रचनाशील और चिंतनशील मानस को आज भी मुग्ध करती हैं। उनकी लोकप्रियता और प्रासंगिकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रतिवर्ष उनकी रचनाओं के न जाने कितने संग्रह आते रहते हैं। अनगिनत शोध-पत्र और आलोचना की पुस्तकें प्रकाशित होती रहती हैं।

हमारे समय के एक महत्वपूर्ण बुद्धिजीवी और रचनाकार पंकज बिष्ट भी मीरा की ओर आकर्षित होते रहे हैं। यों तो मीरा पर उनका कोई व्यवस्थित कार्य सामने नहीं आया है, फिर भी उनका एक अलक्षित काम है, जो कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण और प्रसंशनीय है। इस आलेख में उनके इसी काम का आलोचनात्मक अध्ययन किया गया है। यह एक यात्रा-वृत्तांत है, जो मीरा से जुड़े स्थानों की यात्राओं का आख्यान है। यह केवल यात्रा-वृत्तांत नहीं है क्योंकि यह इस विधा के परे जाता है। यह मीरा की खोज का एक सफल प्रयास भी है। इसमें मीरा के जीवन और काव्य पर अंतर्दृष्टिपूर्ण आलोचना भी है। इस तरह लेखक का अपना देश और काल, मीरा का देश और काल, मीरा की रचनाओं का आलोचनात्मक पुनर्वाचन और संगीत की परंपरा में मीरा की उपस्थिति की पड़ताल के कई धरातलों पर एक साथ गतिमान यह लेख वस्तुत: मीरा के ‘सागर’ को ‘गागर’ में भरने का एक विरल कार्य है। मीरा के बारे में संक्षेप में कुछ सार्थक और मूल्यवान पढ़ना हो, मीरा के जीवन और काव्य के विविध पक्षों, उनसे जुड़ी सारी सूचनाओं को बिना अकादमिक शुष्कता के जानना हो, उनके काव्य को समझने की दृष्टि पानी हो, और उनकी रचनाओं का सार-ग्रहण करना हो तो पंकज बिष्ट के लेख ‘विद्रोह की पगडंडी : मीरा के देश में एक नास्तिक’ से बढ़िया लेखन शायद ही कोई और मिले।

यों तो इस लेख में मीरा के देश की यात्रा तथा उनके जीवन और काव्य की आलोचना आपस में गुँथी हुई हैं, सहचर हैं, फिर भी समझने की सुविधा के लिए यहाँ यात्रा-वृत्तात्मक और आलोचनात्मक अंशों को अलग-अलग करके पढ़ा जा रहा है। पहले देखते हैं, उनकी मीरा से संबंधित स्थानों की यात्राएँ।

अपनी यात्रा के बारे में पंकज बिष्ट लिखते हैं, “यह एक साहित्य प्रेमी की यात्रा थी जो समकालीन लोकतंत्र के हंगामे और तुमुल कोलाहल के बीचों-बीच से किसी तरह निकल मध्यकाल की टोह में दूर तक जाना चाहती थी। अपने प्रिय कवि के उस संसार की तलाश में, जो चार सौ साल पहले रहा था।”1  समाज को गहराई में प्रेरित और प्रभावित करनेवाले व्यक्तियों से जुड़े स्थलों को देखने, व्यक्तियों से मिलने और चीजों को संग्रहित करने की प्रवृत्ति स्वाभाविक है। यही स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति पंकज बिष्ट को भी मीरा का देश घूम आने के लिए प्रेरित करती है। अन्यथा मीरा का पूरा परिचय तो उनकी रचनाएँ ही देने में सक्षम हैं।

मीरा के देश से पंकज बिष्ट का आशय है, वे स्थान जहाँ मीरा रही थीं। राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र के मेड़ता नामक कस्बे में मीरा का जन्म हुआ था। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि लेखक-यात्री ने मीरा के जन्म-स्थान को पहला पड़ाव बनाया। मीरा की जन्म-भूमि का स्पर्श लेखक के लिए कितना काम्य था यह उसने स्वयं ही कहा है, “उस सुबह जब से मैं जोधपुर से चला था, अजीब उद्वेग और उत्सुकता से भरा था। जैसे मीरा ने मिलना ही है। या शायद यह नहीं था। मैं उस मिट्टी को छूने जा रहा था जिसमें मीरा पली-बढ़ी थीं। अरसे से सँजोयी इच्छा जो कुछ ही समय में पूरी होने जा रही थी।”2 मीरा का जन्म मेड़ता में किस स्थान पर हुआ था, यह सुनिश्चित नहीं है। मीरा के अध्येताओं में इसे लेकर बहुत मतांतर मिलता है। उन्हें देखने को मिले मेड़ता शहर से बाहर ‘राठौरों के खंडहर होते महल’ जो ‘इतिहास का इंद्रजाल’ लगते हैं। खंडहर कितना ही भव्य क्यों न हो, होता खंडहर ही है। जितना ही अधिक लगाव और सम्मान व्यक्ति से होता है उतना ही उस व्यक्ति से जुड़े खंडहर को देखकर वेदना, पछतावा और निराशा की अनुभूति होती है। पंकज बिष्ट में भी ये भाव उठते हैं, ‘काश उसे मीरा के स्मारक के तौर पर बचा लिया गया होता।’ मीरा से जुड़ी एक और विरासत का जिक्र होता है, कस्बे के मध्य में स्थित एक हवेली के मंदिर का। स्थानीय लोग इसे मीरा का मंदिर मानते हैं, लेकिन यह उतना पुराना नहीं है। न ही कोई ऐतिहासिक प्रमाण हैं जो इस उक्त दावे को प्रामाणिक सिद्ध कर सकें। ऐसे में इस ‘विरासत’ या ‘स्मारक’ को देखकर एक प्रकार की खीझ ही पैदा होगी। पंकज बिष्ट इस खीझ से भर गये थे। इसके बाद उनके मन में मीरा के देश में घूमने और उनसे जुड़ी मिट्टी के स्पर्श की निरर्थकता का भाव पैदा हो गया।

दूसरा पड़ाव मीरा का ससुराल मेवाड़ है। यहाँ भी एक मीरा-मंदिर है। आदिवाराह के मंदिर को मीरा मंदिर घोषित कर दिया गया है। चित्तौड़गढ़ के किले और मेवाड़ राजवंश के साथ-साथ उस समय की राजनीति की अच्छी-खासी जानकारियों से पंकज बिष्ट ने इस प्रसंग को मिथकों और लीजेंड्स के बजाय इतिहास के धरातल पर रखकर प्रस्तुत किया है। मेवाड़ में मीरा के जीवन-संघर्ष को त्रासपूर्ण बनाने में पितृसत्ता के प्रति उनके अवहेलनापूर्ण व्यवहार की ही भूमिका नहीं थी, बल्कि इसका एक कारण राजवंश के भीतर मीरा और हाड़ा रानी, जो किशोर महाराणा विक्रमादित्य की माँ और संरक्षिका थीं, के बीच सत्ता-संघर्ष भी था। लेखक ने इस पक्ष पर ध्यान नहीं दिया है। और, इसे केवल पितृसत्ता और स्त्री के संघर्ष के रूप में देखा है। इसी मेवाड़-प्रसंग में ‘जौहर कुंड’ का हृदयविदारक वर्णन इस लेख का एक मूल्यवान अंश है। मीरा के जीवन-संघर्ष में सबसे कठिन काल-खंड मेवाड़ का ही है। इन्हें स्त्रियों के अभिशप्त जीवन के व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर पंकज बिष्ट ने उस समय के सामंती समाज की स्त्रियों की जिंदगी के प्रति करुणा और सहानुभूति पैदा करने में अद्भुत सफलता पायी है।  

मेवाड़ को असुरक्षित पाकर मीरा वापस मायके यानी मेड़ता चली गयी थीं। वहाँ का सत्ता समीकरण उनके बिल्कुल विरूद्ध चला गया था। यहाँ तक कि जीवन की सुरक्षा भी संकट में थी। उनकी कविताओं मे कई जगह उनकी हत्या के प्रयासों का उल्लेख है। मायके जाने का उद्देश्य था मेड़ता के राठौड़ों से सहायता और समर्थन जुटाना। उस समय तक मेड़ता में उनके ताऊ राव वीरमदेव का शासन नष्ट हो चुका था। मेड़तिया राठौर स्वयं सत्ता-च्युत होकर दर-दर की ठोकरें खा रहे थे। ऐसे में मीरा के लिए मेड़ता में भी कोई निरापद स्थान नहीं बचा था। थोड़े समय बाद ही वे वृंदावन चली जाती हैं। वृंदावन में भी अधिक दिन नहीं रुकती हैं। धार्मिक कारणों के साथ-साथ इसका एक कारण राजनीतिक भी रहा होगा। हाड़ा चौहानों का रणथंभौर दुर्ग यहाँ से अधिक दूर नहीं था। उल्लेखनीय है, ये मीरा से शत्रुता रखते थे। इसलिए, मीरा के लिए वृंदावन भी निरापद नहीं था। वे यहाँ से द्वारिका चली जाती हैं। यात्रा-वृत्तांत का तीसरा और अंतिम पड़ाव यह द्वारिका ही है। मीरा के आराध्य कृष्ण की द्वारिका। उनका आध्यात्मिक ससुराल यानी घर, राज-पाट। द्वारिका में मीरा के जीवन के अनुमानों और संकटों की कल्पना के साथ ही पंकज बिष्ट ने द्वारिका के इतिहास को भी खँगाला है। मीरा ने द्वारिका में ही अंतिम साँस ली या दक्षिण की ओर चली गयीं, आज यह सब कुछ अटकल से अधिक कुछ भी नहीं है। इसलिए, द्वारिका को अंतिम पड़ाव बनाना इतिहास की दृष्टि से उचित है। वृंदावन का जिक्र करने के बावजूद पंकज बिष्ट ने न यहाँ की यात्रा की और न ही इस पर लिखा। इसके जो भी कारण रहे हों।

यों तो यह कह पाना कठिन है कि मीरा धार्मिक तथा आध्यात्मिक जिज्ञासा से और राजनीतिक कोप से बचने के लिए कहाँ-कहाँ भटकीं फिर भी मीरा के अध्येताओं में इस बात पर लगभग एकराय है कि मेड़ता, मेवाड़ और द्वारिका में मीरा के जीवन का अधिकांश बीता था। पंकज बिष्ट ने इन स्थलों की यात्रा करके मीरा की स्मृति और विरासत की खोज तो की ही साथ में उनकी संक्षिप्त प्रामाणिक जीवनी भी प्रस्तुत की है। जो यह सिद्ध करता है कि पंकज बिष्ट का मीरा के प्रति बौद्धिक लगाव केवल भावुकता के कारण नहीं है, बल्कि अध्ययन और अध्यवसाय से पुष्ट है। यात्रा के ये तीन चरण मीरा के जीवन के अन्वेष के तीन चरण बन जाते हैं। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में मीरा का जीवन ही नहीं बल्कि उनका परिवेश भी पुनर्सृजित हुआ है। यात्रा के आरम्भ में लेखक में जो भावुकता और उत्सुकता थी वह चुपके से निर्मम और तटस्थ इतिहास-दृष्टि तथा मीरा और हमारी समकालीनता की बेबाक आलोचना में रूपांतरित हो जाती है। वे मीरा के देश में घूमते हैं, तो केवल अतीत या वर्तमान में ही नहीं रमते। मीरा के देश की निरंतरता को भी रचते हैं। यह मीरा की ही समकालीनता की तलाश नहीं है, बल्कि स्वयं लेखक की समकालीनता की भी तलाश है। लेखक की इसी समकालीनता में मीरा की विरासत, स्मृति-विस्मृति, मनन और मूल्यांकन की निरंतरता दृष्टिगोचर होती है।

रचना और रचनाकार के सामाजिक संदर्भ को महत्व देते हुए भी यह कहना अनुचित नहीं है कि कवि का देश-संसार तो उसकी रचना में ही होता है। रचना के बाहर उसकी खोज की कोशिश अंतत: निराश ही करती है। सूरदास का ‘सूरसागर’ पढ़कर कृष्ण-लीला के प्रसंग आज के वृंदावन की भौगोलिक यात्रा की प्रेरणा तो दे सकते हैं, लेकिन यात्राएँ उसी परिवेश और संस्कृति की झलक नहीं दे सकतीं, जिनका बखान इस महाकाव्य में हआ है। इसी तरह, ‘रामायण’ के अनुशीलन के बाद अयोध्या, मिथिला और लंका की यात्राएँ निराश ही करेंगी। मीरा के बारे में भी यही सच है। उनके व्यतीत होने के चार सौ वर्ष बाद ये यात्राएँ औतसुक्य तो शांत करती हैं, लेकिन कोई विशेष प्रयोजन नहीं सिद्ध कर पाती हैं। उल्टे एक तरह का व्यर्थताबोध ही पैदा करती हैं। यह बात एक बार फिर पंकज बिष्ट के अनुभव से सिद्ध हुई। उनको भी यह बोध यात्रा की निरंतरता में ही हुआ। वे स्वयं लिखते हैं, “अचानक मीरा के चिन्हों को तलाशने की इच्छा को लेकर मेरे अंदर दुविधा जन्म लेने लगी। मैं आखिर क्या तलाश रहा हूँ? क्या कवियों के विजय स्तम्भ स्वयं उनकी रचनाएँ नहीं होती हैं? सत्य यह है कि उनकी रचनाएँ ही उनका जीवन और उनका अंत होती हैं। कोई लेखक संभवत: अपनी रचना से परे नहीं होता।”3

यात्रा के पहले इसका भान या ज्ञान पंकज बिष्ट को न रहा हो, ऐसा नहीं हो सकता है। इसके बावजूद यात्रा की गयी तो इसका कारण ‘मीरा के देश’ का एक यात्रा-वृत्तांत लिखना नहीं था। यह यात्रा-वृत्तांत उनकी उस यात्रा का केवल साक्षी और साक्ष्य भर है, काम्य फल नहीं। इसका उद्देश्य इससे वृहत्तर और महत्तर था। लेख के आरंभ में ही उन्होंने जो लिखा है, उसे पढ़ने से यह बात और पुष्ट होती है। वे लिखते हैं, “नब्बे के दशक के शुरू से ही मेरी इच्छा रही थी कि मीरा पर कुछ ऐसा काम करूँ जो यथार्थ और गल्प का मिश्रण हो। यह यात्रा एक परियोजना का अंग थी जो पूरी नहीं हो पायी। किसी कथाकार के लिए ऐसी विषय-वस्तु से बेहतर और क्या हो सकता है, जिसमें कल्पना का सहारा लेने की भरपूर गुंजायश हो।”4 ऐसा लगता है कि पंकज बिष्ट मीरा पर कुछ वैसा ही लिखना का चाहते थे जैसा कि संस्कृत के कवि बाणभट्ट पर हजारीप्रसाद द्विवेदी का ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ और तुलसीदास पर अमृतलाल नागर का ‘मानस का हंस’ है। ऐसा हुआ तो साहित्य के लिए यह एक उपलब्धि होती, लेकिन जो न हुआ उसका फछतावा कैसा! सारा परिश्रम अकारथ चला गया हो, ऐसा भी नहीं है। इस लेख में उस गल्प और यथार्थ मिश्रित रचना का पूर्वाभास और पूर्वाभ्यास दोनों मिलता है जो कि, उम्मीद कायम है आज भी, आ सकती है।

जैसा कि हमने देखा कि बीच यात्रा में लेखक को इस बात का अनुभव हुआ कि मीरा के देश में उनके चिह्नों को तलाशने से ज्यादा महत्वपूर्ण है उनकी रचना के देश में उनको तलाशना। उनका यह अनुभव असल में एक पूर्व स्थापित साहित्य-सिद्धांत का ही समर्थन करता है। यात्रा पूर्ण होने के करीब सोलह साल बाद यह वृत्तांत लिखते समय पंकज बिष्ट ने इस अनुभव को याद रखा और यात्रा-वृत्तांत के बीच-बीच में उनकी रचनाओं का अंतर्दृष्टिपूर्ण आलोचनात्मक पाठ भी प्रस्तुत किया। इससे मीरा का संपूर्ण परिचय मिलता है। रचना का पाठ और भ्रमण साथ-साथ चलते हैं। इस शैली की एक विशेषता यह है कि यह उन पाठकों को भी रूचिकर लगेगी जो आमतौर आलोचना के पाठक नहीं होते हैं।

मीरा जिस भक्ति-आंदोलन की उपज हैं, वह अपने स्वरूप में अखिल भारतीय था। काव्य इसकी अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम था। ये कवि अपनी मातृभाषाओं में रचनाएँ करते हैं, लेकिन उनकी रचनाएँ उस आंदोलन का अभिन्न अंग हैं जो दक्षिण भारत से शुरू होकर पूरे देश में फैल गया। इसलिए, मध्यकालीन भक्ति-आंदोलन के किसी भी रचनाकार को ढंग से समझने के लिए भक्ति-आंदोलन और भक्ति-काव्य की व्यापक और व्यवस्थित समझ पूर्व शर्त है। पंकज बिष्ट मीरा के काव्य के मर्म का उद्घाटन करने से पहले भक्तिकाल के मुख्य स्वर को पहचानने से शुरुआत करते हैं। भक्तिकाल की उनकी समझ का सार उनके ही शब्दों में देखना ठीक रहेगा, “अपने आप में यह देखना भी मज़ेदार है कि भक्तिधारा की मूल चेतना उदात्त, आध्यात्मिक और दार्शनिक है। दोनों में ही ये सारे तत्व हैं पर दोनों की अपनी मूल चेतना में विद्रोही न कहें तो भी ‘नॉनकनफर्मिस्ट’ तो हैं ही। बेइंतिहा सामयिक और व्यक्तिगत। देखा जाय तो एक स्तर पर भक्ति आंदोलन विद्रोह ही तो है। जातिवाद के खिलाफ, और पितृसत्ता के खिलाफ। कुछ हल्के शब्दों में कहें तो भी भक्ति के माध्यम से आप एक ऐसे संसार की तलाश कर रहे होते हैं जो आपके यथार्थ से अलग है।”5 भक्तिकाल के बारे में उक्त कथन कुछ सामान्य विशेषताओं को सामने रखता है। लेकिन, यह निर्गुण भक्तिधारा पर अधिक लागू होता है।

’मध्ययुगीन भक्ति-आन्दोलन का एक पहलू’ नामक अपने प्रसिद्ध निबंध में मुक्तिबोध सगुण और निर्गुण भक्ति को क्रमश: उच्चवर्गीयों और निम्नवर्गीयों के बीच संघर्ष के रूप में देखते हैं। वे निर्गुण भक्ति को प्रगतिशील और सगुण भक्ति को प्रतिक्रियावादी सिद्ध करते हैं। दोनों में, या यों कहें कि इस आंदोलन के सभी कवियों में कुछ सामान्य विशेषताएँ हैं, लेकिन इनमें विशिष्टताएँ भी हैं। भक्तिकाल के किसी भी अध्येता के लिए इन अंतरों के बीच द्वंद्व की उपेक्षा संभव नहीं है। पंकज बिष्ट ने इन विशिष्टताओं तथा सगुण और निर्गुण के भेद को कबीर, तुलसी और मीरा के बीच तुलना के माध्यम से रेखांकित किया है। उनके लिए तुलसीदास प्रतिक्रियावादी तो कबीर क्रांतिकारी हैं। यह तुलना सगुण-निर्गुण के शास्त्रीय भेद के अनुरूप है और उचित भी, लेकिन मुक्तिबोध के विवेचन और विश्लेषण में मीरा का कहीं उल्लेख नहीं है जबकि पंकज बिष्ट के विश्लेण में मीरा केन्द्र में हैं। मीरा कृष्ण भक्त थीं। उक्त श्रेणी विभाजन के आधार पर वे सगुण भक्तिधारा की कवयित्री हैं। लेकिन, मीरा के सामने सगुण-निर्गुण के इस विभाजन और इससे निकाले गये निष्कर्ष निरर्थक सिद्ध होते हैं। इस विभाजन को आत्यंतिक रूप से सत्य मान लेने के बाद मीरा को भी सामाजिक प्रतिक्रियावादी मान लिया जा सकता है। जबकि, उनकी कविता सगुण भक्ति की होते हुए भी सगुण भक्ति के सामाजिक-दर्शन के विरुद्ध है। मीरा की क्रांतिकारिता और विद्रोह-भावना मुक्तिबोध के उक्त वर्गीय विश्लेषण की सीमा को रेखांकित करती है। अपने विश्लेषण में मुक्तिबोध दूर तक सही हैं। उन्होंने भक्ति-आंदोलन की समझ को एक नया आयाम दिया है। लेकिन, यदि उन्होंने मीरा को भी अपने विश्लेषण में शामिल किया होता तो निश्चय ही उतना आत्यंतिक वर्गीकरण करना उनके लिए कठिन होता जितना कि उन्होंने किया है। इसके साथ-साथ उन्होंने सगुण और निर्गुण भक्त कवियों की स्त्री-संवेदनाओं की भी पूर्ण उपेक्षा की है। स्त्रीवादी दृष्टिकोण से वे दोनों समानरूप से प्रतिक्रियावादी सिद्ध होते हैं। पंकज बिष्ट ने मीरा को भक्तिकाल के सभी कवियों में सबसे अधिक क्रांतिकारी और परिवर्तनकामी सिद्ध किया है। मीरा की कविता में समाज के किसी भी समूह के प्रति न परंपरागत पूर्वग्रह और संवेदनहीनता है और न ही किसी अन्यायपूर्ण समाज-व्यवस्था का समर्थन। इसलिए, मीरा का भक्तिकाल की सर्वाधिक मुक्तिकामी और परिवर्तनकामी स्वर के रूप में रेखांकन निश्चय ही भक्तिकाल को पढ़ने और समझने की एक नवीन दृष्टि का प्रतिपादन है। बिष्ट मीरा की कविता की सामाजिक क्रांतिकारिता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं, “उनकी कविता मात्र एक स्त्री की स्वतंत्रता का संघर्ष नहीं है बल्कि सामाजिक समानता की पक्षधरता और राजशाही के ख़िलाफ़ विद्रोह की दुंदुभि है। यह लोकतंत्र की लड़ाई नहीं है पर लोकतंत्र और समानता की ज़रूरत को रेखांकन जरूर है।”6 मीरा के काव्य में निहित मानव-मानव के बीच स्तरीकरण और भेदभाव के विरूद्ध तथा सारभौम समतावादी और मानवीय एकता की विचारधारा को रेखांकित करते हुए पंकज एक जगह और लिखते हैं, “एक और ध्यान देनेवाली बात यह है कि मीरा यही नहीं कि स्त्री-पुरुष के बीच के नकली अंतर को नहीं मानतीं, बल्कि वह सामाजिक अंतर में भी विश्वास नहीं रखतीं।”7 पृ 26।

मीरा के अध्यात्म और भक्ति को पंकज बिष्ट ने एक ‘हथियार’ या रणनीति के रूप में देखा है। उनका जोर है कि मीरा की केन्द्रीय संवेदना अध्यात्म-साधना नहीं बल्कि जीवन-साधना है। इस जीवन-साधना को साधने के लिए ही वह अध्यात्म को सुविधा के लिए इस्तेमाल करती हैं। यदि कोई और उपाय होता तो वे निश्चय ही कृष्णोपासना और भक्ति-भाव का सहारा न लेतीं। वे लिखते हैं, “मीरा के पूरे काव्य में भक्ति एक बहुत ही सतही और झीनी आड़ है। उनके पूरे सृजन में आपको कहीं किसी तरह की कोई आध्यात्मिकता, कोई गंभीर दर्शन देखने को नहीं मिलता। ... मुझे अचानक लगता है संभवत: अगर कोई और रास्ता होता तो वह भक्ति के आवरण को न अपनातीं।”8 ख़रामा-ख़रामा भक्तिकाल के अध्येताओं में इस तरह के आग्रह आम हैं, क्योंकि वे भक्ति और अध्यात्म को जीवन से कटाव के रूप में देखते हैं जबकि मीरा और निर्गुण कवियों के दृष्टिकोण में भक्ति, अध्यात्म और यथार्थ जीवन में कोई विभाजन नहीं है। उनके लिए रोजमर्रा के जीवन-संघर्ष और भक्ति-साधना एक साथ संभव थी। निपट आधुनिक मन को यह एकता अटपटी लग सकती है, लेकिन भक्त कवियों के लिए यह बिल्कुल सहज और सामान्य बात थी। पंकज बिष्ट के लेख का शीर्षक है : ‘विद्रोह की पगडंडी : मीरा के देश में एक नास्तिक’। इसका अर्थ यहाँ खुलता है। असल में, भक्तिकाव्य को आधुनिक और समकालीन चित्त के निकट सिद्ध करने के लिए कभी-कभी उसके धर्मनिरपेक्ष और नास्तिक अध्येता इस तरह के निष्कर्ष आग्रहपूर्वक निकालते हैं। यह भक्त कवियों के सामयिक पाठ से अधिक, उनके विवेक और संवेदना पर अपने विवेक और संवेदना का आरोपण है। जो कवि धर्मसत्ता, राजसत्ता और समाजसत्ता सबके कोप से अविचल और निर्भीक होकर अपनी अभिव्यक्ति के लिए संघर्ष किया करते थे उनके लिए ईश्वर की आड़ कोई सहारा और सुरक्षा नहीं हो सकती थी। वे बिल्कुल धर्मनिरपेक्ष और अध्यात्मरहित थे, इसका एक हथियार के रूप में सहारा उन्होंने किसी सुरक्षा या लोकस्वीकृति की लालसा के लिये लिये, ऐसा मानना उन्हें भीरू और समझौतावादी सिद्ध करने से कम नहीं है। उनके काव्य के समग्र और प्रामाणिक पाठ के लिए यह जरूरी है कि हम यह मान लें कि उनके लिए जीवन-संघर्ष और भक्ति में कोई विभाजक रेखा नहीं थी। सांसारिक जीवन में भक्ति बाधक नहीं थी और न ही भक्ति में सांसारिक जीवन। भक्ति उस समय काव्यरचना और कवियों के जीवन का एक मुहावरा भी थी। जो उनके लौकिक सत्ता संघर्ष को न तो भोथरा बनाती थी और न ही उनकी बौद्धिकता को दृष्टिहीन करती थी। यदि ऐसा होता तो भक्तिकाव्य आज भी इतना समकालीन और आधुनिक न लगता और न ही इस तरह के आग्रह ही देखने में आते। ईश्वरवाद, भक्ति इत्यादि में आस्था होने के बादजूद ये कवि धर्मसत्ता और धार्मिक विश्वासों-अंधविश्वासों की जैसी और जितनी आलोचना सके वैसी और उतनी आज के धर्मनिरपेक्ष और नास्तिक कवियों के लिए भी संभव नहीं है। ईश्वर, भक्ति और आध्यात्मिक होने के बावजूद ये कवि जीवन और संसार की धड़कन को गहराई में अनुभव कर सके और विश्व-प्रपंच को अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से भेद सके।

इसके अतिरिक्त मीरा सहित भक्तिकालीन कवियों के लिए भक्ति लोक-परलोक साधने का साधन न होकर बहुत-सी अन्य चीजों के साथ मनुष्य के सबसे अदम्य और प्रबल भाव, प्रेम-भाव, की अत्यंत गहन, मार्मिक और वेदनामय दैहिक-ऐंद्रिक अभिव्यक्ति का मुहावरा भी है। यही नहीं, इनके लिए ईश्वर मनुष्य की व्यक्तिसत्ता के साथ-साथ यौनिकता का आलंबन भी है। भक्त ईश्वर के शास्त्रोनुमोदित जन्मदाता, पालक और संहारक रूपों से ज्यादा उसे एक ऐसे मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठित करता है जिसे वह एक मनुष्य की भाँति ही प्रेम कर सके। प्रेम के धरातल पर यह ख़ुदा और बंदे का नहीं बल्कि बराबरी का संबंध है। कबीर उसके साथ ‘एकमेक होकर सेज पर सोने’ की कामना करते हैं तो मीरा लोक-लाज और कुल की मर्यादा को तिलांजलि देकर ’पिया के पलंगा जा पौढ़ूँगी’ का संकल्प लेती हैं। ध्यान देने की बात यह है कि कवियों के समक्ष ईश्वर के कोप का प्रतिपक्ष नहीं है। अगर कोई चुनौती है तो वह है लोक-लाज और सामाजिक मर्यादा की, जिसकी कोई परहवा वे वैसे भी नहीं करते थे। न ही ईश्वर से अनुमति लेकर प्रेम करने की भावना है। कहते हैं कि ईश्वर की कल्पना स्वयं मनुष्य ने की है। अपने-अपने ऐतिहासिक संदर्भों और आवश्यकताओं के अनुकूल। भक्त कवियों के लिए भी यह कहावत सही है। कहने की आवश्यकता नहीं कि उन्होंने अपने ईश्वर गढ़े और मनमुताबिक उससे अपने संबंध तय किये। यहाँ तक कि प्रेमी और सेक्स पार्टनर के रूप में भी। ऐसा करने की ताकत और साहस धर्मभीरू और स्वर्ग-लोलुप भक्त नहीं कर सकते थे। भक्त कवियों के बारे में ये बातें केवल अलौकिक और आध्यात्मिक संदर्भ में नहीं समझी जा सकती हैं, बल्कि लौकिक और सामाजिक संदर्भ के बिना कवियों की भक्ति के अर्थ नहीं खुल सकते।

यह बहुत प्रचलित मान्यता है कि मीरा अपने पति को स्वीकार नहीं कर पायीं थीं। वैवाहिक जीवन में उनकी कोई रुचि नहीं थी। इस मान्यता को प्रतिक्रयावादी और प्रगतिशील दोनों बहुत अधिक महत्व देते हैं। प्रतिक्रियावादी उन्हें अतिधार्मिक सिद्ध करने के लिए तो प्रगतिशील अतिक्रांतिकारी बताने के लिए। पहली श्रेणी के विद्वान यह कहते हैं कि मीरा बचपन से ही कृष्ण-भक्ति में लीन रहती थीं और उन्हें ही अपने पति के रूप में देखती थीं, इसलिए कुँवर भोजराज से अपने विवाह को मन से स्वीकार नहीं कर पायीं। न तो उनसे प्रेम किया और न ही शारीरिक संबंध रखा। कुछ प्रगतिशील विद्वान यह कहते हैं कि मीरा पितृसत्ता की विरोधी थीं और चूँकि विवाह और संतानोत्पत्ति पितृसत्ता के आधार हैं, इसलिए मीरा ने विवाह-संस्था के अस्वीकार के माध्यम से पितृसत्ता के इन आधारों को हिला दिया था। विवाह के बाद पत्नी के रूप में अपनी भूमिका न निभाना पितृसत्ता के विरूद्ध सत्याग्रह था। दोनों यह भी मानते हैं कि मीरा का यह व्यवहार ससुराल में उनके विरोध का एक प्रमुख कारण था। पंकज बिष्ट भी अपने विश्लेषण के द्वारा इसी मान्यता को पुष्ट करते हैं। वे लिखते हैं, “मीरा का विरोध अपने देवरों से ही नहीं था। वह अपने पति को भी स्वीकार नहीं कर पाईं थीं। औरत को आखिर क्या चाहिए? अच्छा पति, अच्छा घर! जिसकी छाया में वह खामोश जी सके और उतनी ही बेआवाज़ मौत मर सके। पितृसत्ता निर्धारित स्त्री-सुख का यह मानदंड मीरा सिरे से खारिज़ कर देती हैं। इस अस्वीकार के पीछे सिर्फ़ एक ही माँग है, और वह है अपने हिसाब सा जीवन जीने की कामना।”9

इस धारणा के विपरीत मीरा के जीवन के कुछ ऐतिहासिक संदर्भों और तथ्यों के आधार पर मीरा के कुछ अध्येताओं ने यह दिखाया है कि मीरा के वैवाहिक जीवन से जुड़ी उक्त धारणा भ्रामक है। इसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है। इसको प्रचलित करने के पीछे एक ही कारण प्रतीत होता है कि कृष्ण के प्रति उनकी भक्ति और समर्पण तभी आदर्श रूप में दिखाये जा सकते थे जब उनके विवाह को केवल सांसारिक दिखावा सिद्ध किया जाय। ऐसे अध्येताओं ने यह भी दिखाया है कि मीरा की कृष्ण-भक्ति उनके विधवा होने के बाद शुरू होती है, न कि होश सँभालने के बाद से ही। मीरा ने पति की असामयिक मृत्यु के बाद राजपूती परंपरा के अनुसार सती किये जाने से बचने के लिए अपने को कृष्णार्पित बताया और कहा कि वे केवल कृष्ण को अपना पति मानती हैं। मीरा के युवा अध्येता अरविन्द सिंह तेजावत बड़े विश्वसनीय ढंग से सिद्ध करते हैं कि पति के जीवनपर्यंत उनका विवाहित जीवन सामान्य था। वे लिखते हैं, “पति के प्रति मीरा का प्रेम उसकी शक्ति थी। स्वाधिकारों की चेतना स्त्री की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष हेतु प्रेरित तो करती है किंतु पुरुष को प्रति घृणा नहीं सिखाती। मीरा ने स्वाधिकार रक्षा एवं स्त्री-स्वतंत्रता के लिए संघर्ष तो किया किंतु पति से घृणा नहीं की। वास्तव में चित्तौड़गढ़ में मीरा की हैसियत एवं स्थिति मीरां के उसके पति के साथ संबंधों पर निर्भर थी।”10 कृष्णार्पित मीरा की छवि को चमकाने के लिए उनके विवाह के बारे में अनैतिहासिक बातों का प्रचार भक्ति और भक्तमाल परंपरा ने किये। उन्हीं के आधार पर प्रगतिशील अध्येताओं ने मीरा के बारे में सर्वथा भिन्न निष्कर्ष निकाले। यह दो सर्वथा विरोधी विचार-परंपराओं द्वारा मीरा के आत्मसातीकरण का एक रोचक उदाहरण है।

पंकज बिष्ट ने मीरा की विद्रोही प्रवृत्ति को मीरा-भावसिद्ध किया है। उनके अनुसार स्थापित व्यवस्था, लोक-लाज, पितृसत्ता के प्रति विद्रोह उनके काव्य का प्रधान स्वर है। उन्होंने मीरा के इस पक्ष को भलीभाँति विश्लेषित किया है। किसी भी विद्रोही की तरह मीरा भी आत्मसत्ता को स्वायत्त और स्वतंत्र रखने के लिए राजसत्ता, पितृसत्ता, धर्मसत्ता इत्यादि सभी प्रकार की सत्ताओं को चुनौती दी और अपनी स्वतंत्र व्यक्तिसत्ता को स्थापित किया। जाहिर है, एक साथ सभी सत्ताओं से लोहा लेना अपने को नितांत अकेली कर लेना था, बल्कि मृत्यु को भी आमंत्रण देना था। मीरा ने यह सब भोगा फिर भी न झुकीं, न समझौता किया। उनके ऊपर सत्ता या राज्य-निर्णय थोपने के प्रयत्न मेड़ता-मेवाड़ से लेकर द्वारिका तक हुए। इन प्रयत्नों के समानांतर वे लगातार अपनी आत्म-निर्णय की सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए जूझती रहीं। पंकज बिष्ट ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि ‘समाज-निर्धारित भूमिका के ख़िलाफ़’ मीरा का विद्रोह “आत्म-निर्णय की आज़ादी की ललक है।”11 उनका जीवन सामान्य स्त्री का जीवन नहीं था। राज-समाज की होने के बावजूद उन्हें समाज के केन्द्र या मुख्यधारा से बहिष्कृत और निर्वासित किया गया था। फिर भी, उनके जीवट और संघर्ष-क्षमता ने उनके हाशिये पर फेंक दिये गये जीवन को आनेवाली पीढ़ियों की संवेदना में केन्द्रीय स्थान दिलाये।

मीरा-काव्य की पंकज बिष्ट की आलोचना का एक उज्ज्वल पक्ष वहाँ दिखता है जहाँ वे मीरा की कविता की ऐंद्रिकता, काम-भावना और प्रकृति-प्रेम की मार्मिक व्याख्या करते हैं तथा उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में अंतर्निहित रोमांटिकता को रेखांकित करते हैं। उनके समतावादी विचार, विद्रोह और आदर्शवाद में भी वे उनकी रोमांटिकता को कारक के रूप में देखते हैं।

अपनी यात्राओं के वृत्तांतों और मीरा के जीवन-प्रसंगों के अन्वेषण-विश्लेषण के मध्य पंकज बिष्ट ने मीरा की रचनाओं पर विचार करने के पर्याप्त अवसर जुटाए और जो भी लिखा, मूल्यवान लिखा। उनका यह यात्रा-वृत्तांत, यात्रा-वृत्तांत के अतिरिक्त जीवनी और आलोचना जैसी साहित्यिक विधाओं, स्थापत्य, संगीत और गायन जैसी कलाओं तथा राजनीति और इतिहास जैसे अनुशासनों को एक साथ साध सकने की उनकी प्रतिभा और कौशल का एक नायाब नमूना है। और, ठीक इसी कारण  यह मीरा पर एक अद्वितीय और विशिष्ट कृति है।

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1.       ख़रामा ख़रामा, पंकज बिष्ट, अंतिका प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद, 2012, पृ 21।

2.       वही, पृ 26।

3.       वही, पृ 31।

4.       वही, पृ 19।

5.       वही, पृ 21।

6.       वही, पृ 22।

7.       वही, पृ 27।

8.       वही, पृ 26।

9.       वही, पृ 26।

10.   मीरां का जीवन, अरविंद सिंह तेजावत, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2015, पृ 19।

11.   ख़रामा ख़रामा, पंकज बिष्ट, अंतिका प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद, 2012, पृ 26।

 


शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

कोरोना संकट से निपटने में क्या राहुल बेहतर प्रधानमंत्री साबित होते?

कोरोना संकट से निपटने में क्या राहुल बेहतर प्रधानमंत्री साबित होते?

भयानक समय में ही एक सच्चे नेता की पहचान होती है. यह बात हम सब जानते हैं. बल्कि, मुहावरे की तरह प्रयोग में लाते रहते हैं. लेकिन, एक देश की सामान्य दिनचर्या में संकटों की पहचान और उनसे मुकाबले की अलग-अलग दलों की अलग-अलग प्राथमिकताएं, व्याख्याएं और दृष्टिकोण होते हैं. ऐसे में सही नेतृत्व की पहचान की कसौटियां भी तरल और धुंधली होती हैं. परंतु, कोरोना ने देश और दुनिया के समक्ष जो संकट पैदा किया है उसमें ये कसौटियां निर्विवाद रूप से स्थापित हो गई हैं.

इसका एक उदाहरण हम यहां देख सकते हैं. अब जबकि कोरोना ने सब कुछ ठप कर दिया है और व्यक्ति को आसन्न मृत्यु के भय से ग्रस्तकर अकेला छोड़ दिया है तब लोग तरह-तरह के विचारों और सवालों में उलझे दिख रहे हैं. पहला स्वाभाविक सवाल यह है कि क्या हम इससे बच नहीं सकते थे? क्या हमने लॉक डाउन करने में देर नहीं कर दी? इत्यादि. सोशल मीडिया पर ऐसी ही एक बहस चल रही है कि यदि राहुल गांधी प्रधानमंत्री होते तो क्या हम भारतीय बेहतर स्थिति में होते? और, पूरे देश को लॉकडाउन की स्थिति में डालने से बच सकते थे?

इस काल्पनिक सवाल उत्तर जितना मुश्किल है उतना इसका विश्लेषण नहीं. हम इस सवाल पर यों विचार कर सकते हैं —

ऐसी स्थिति में किसी नेता के लिए बेहतर होने के लिए मोटेतौर पर दो चीजें चाहिए थीं :

खतरे को पूरी गंभीरता में भांप लेनेवाला दूरदृष्टि संपन्न और उसके अनुरूप कड़ा निर्णय लेनेवाला नेतृत्व.

राहुल गांधी 31 जनवरी से ही लगातार सरकार को आगाह कर रहे थे. यह भी साबित हो गया है कि उन्हें स्थिति की पूरी भयावहता को सही-सही आकलन था. वे बार-बार कह रहे थे कि अर्थव्यवस्था और जनजीवन के लिए कोरोना सुनामी साबित होगा. प्रधानमंत्री को इस बात का अंदाजा नहीं है. उन्होंने अपना सिर जमीन में धँसा लिया है. उन्हें सिर बाहर निकालकर देखना चाहिए कि क्या होनेवाला है. सरकार जनजीवन को बचाने के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं और राहत पैकेज के साथ-साथ इसके दुष्प्रभाव से अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए तत्काल कार्ययोजना तैयार कर उस पर काम करना चाहिए.

तथ्यों पर ध्यान दें तो राहुल गांधी की न केवल आशंका सही सिद्ध हुई बल्कि उन्हें खतरे का सही अंदाज़ा भी था. सरकार की आलोचना में भी वे सही सिद्ध होते हैं. देश में कोरोना का पहला मामला 30 जनवरी को प्रकाश में आया. स्वास्थ्य मंत्री ने 2 फरवरी को सूचना दी कि प्रधानमंत्री स्वयं कोरोना संकट की निगरानी कर रहे हैं. लेकिन, इस दिशा में सरकार ने लंबे समय तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया. विश्व स्वास्थ्य संगठन की चेतावनी के बाद भी पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट (पीपीई) और उनके उत्पादन में काम आनेवाले कच्चे माल का निर्यात 19 मार्च तक जारी रखा गया. जिससे आज डॉक्टर और दीगर स्वास्थ्यकर्मी मास्क, ग्लब्स और ऐसी अन्य मूलभूत सुविधाओं की कम आपूर्ति से परेशान हैं. सरकार किस तरह अचेत थी इसका एक उदाहरण स्वास्थ्य मंत्री का 5 मार्च का वह ट्वीट है जिसमें वे राहुल गांधी के कड़वी सचाई की तरफ इशारा करनेवाले ट्वीट को देश का मनोबल तोड़ने के गांधी परिवार के षड्यंत्र के रूप में देख रहे थे. वास्तविकता यह है कि केन्द्र सरकार से पहले राज्य सरकारों ने पहल करनी शुरू कर दी थीं और केन्द्र सरकार की पहली ठोस पहल रविवार को ‘जनता कर्फ्यू’ के रूप में सामने आई. 20 मार्च को एक दिन का यह कर्फ्यू पर्याप्त कदम माना जा रहा था और दो दिन बाद 24 मार्च को 21 दिन के लॉक डाउन की घोषणा करनी पड़ी. निर्णयों में यह अस्पष्टता सरकार की तैयारियों की पूरी कहानी कहती है!

दूसरी चीज थी, किसी भी लॉक डाउन की स्थिति में निम्न आय वर्ग की न्यूनतम आय सुनिश्चित रखना. कई देश लॉक डाउन की स्थिति में इस दिशा में कदम उठा रहे हैं. स्कॉटलैंड सार्वभौम न्यूनतम आय पर विचार कर रही है. भारत में भी इसी चीज की कमी महसूस हो रही है. संपूर्ण लॉक डाउन की स्थिति में सबसे ज्यादा असंगठित क्षेत्र के श्रमिक और गरीब प्रभावित हो रहे हैं. लॉक डाउन के पहले दिन से ही करोड़ों लोगों के भोजन के संकट में पड़ जाने की खबरें आ रही हैं. किसी भी जानकार व्यक्ति के लिए इसका आकलन करना मुश्किल नहीं है.

राहुल गांधी ने 2019 के लोक सभा चुनावों के लिए अपने घोषणा-पत्र को न्याय योजना के रूप में प्रस्तुत किया था. इस घोषणा-पत्र की मीडिया ही नहीं बल्कि अकादमिक हलकों में भी चर्चा हुई थी. इस देश के लोकतंत्र में घोषणा-पत्र एक औपचारिकता बन गये हैं जिन्हें कोई गंभीरता से नहीं लेता. अपवाद स्वरूप यह बहुप्रशंसित घोषणा-पत्र रहा. कुछ उत्साही प्रशंसकों ने इसे समकालीन भारत की प्रत्येक समस्या को रेखांकित और पहचानने के लिए ‘कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र’ कहा.

इस घोषणा-पत्र का जो सबसे अहम वायदा था वह यह कि यदि कांग्रेस की सरकार बनती है तो वह न्याय नाम से एक ऐसी योजना लाएगी जो देश की कुल आबादी के 20 प्रतिशत आबादी को सालाना 72000 की आय सुनिश्चित करेगी. यानी कि किसी भी व्यक्ति की सालाना आय 72000 से कम नहीं होगी.

मई 2019 में यदि राहुल प्रधानमंत्री बन गये होते तो करीब 10 महीनों में यह योजना लागू हो चुकी होती. तो आज कोरोना से निबटने के लिए हमें लॉक डाउन के दौरान देश की एक बड़ी आबादी को खाते-पीते या अमीर लोगों के रहमोकरम पर छोड़ देने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ता. बल्कि, उन्हें इतनी आर्थिक सुरक्षा मिल चुकी होती कि वे भिखारी की स्थिति में नहीं पहुंचते.

अब तक हमने जो देखा उससे इस काल्पनिक प्रश्न का एक काल्पनिक उत्तर यह निकलता है कि दि राहुल गांधी प्रधानमंत्री होते तो कोरोना से लड़ने में भारत न केवल अधिक सुरक्षित होता, बल्कि दुनिया की मदद भी करने की स्थिति में होता. सोशल मीडिया पर एक बड़ा वर्ग इस उत्तर को ध्वनित और प्रतिध्वनित करता हुआ दिखता है.

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(28 मार्च 2020 को newsplatform.in पर प्रकाशित। लिंक यह है। https://www.newsplatform.in/big-news/will-rahul-gandhi-would-have-been-a-better-prime-minister-to-manage-this-health-crisis/)


बुधवार, 22 जुलाई 2020

नवजोत सिंह सिद्धू के विरुद्ध घृणा-अभियान का सच

            नवजोत सिंह सिद्धू के विरुद्ध घृणा-अभियान का सच          

आनंद पांडेय


पुलवामा में आतंकवादी हमले पर अपनी प्रतिक्रिया को लेकर पंजाब सरकार के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू भयानक दुष्प्रचार और उन्मादी हमलों के शिकार हो रहे हैं. यह दुष्प्रचार अभियान इतना प्रभावशाली है कि लोग उनके पक्ष में बोलने और लिखने से कतराने लगे हैं.
कहने की आवश्यकता नहीं कि सिद्धू पर किया जा रहा हमला उस व्यापक परियोजना का एक हिस्सा है जिसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बुद्धिजीवियों को कुचलकर फासीवादी सत्ता की स्थापना के लिए चलाया जा रहा है.
साम्प्रदायिक उन्माद और युद्धोन्माद के बहाव में कोई उन्हें खालिस्तानी, देशद्रोही और पाकिस्तान का एजेंट कह रहा है तो कोई उनकी पत्नी को उनसे तलाक लेकर अपनी देशभक्ति साबित करने के लिए कह रहा है.
कहना न होगा यह न केवल उनके परिवार और व्यक्तिगत जीवन को इस अनपेक्षित दुष्प्रचार में खींचने की निंदनीय कोशिश है बल्कि उनके प्रति अकारण और अविवेकपूर्ण घृणा की अभिव्यक्ति भी है. कपिल शर्मा के हास्य कार्यक्रम से निकालने के लिए दुष्प्रचार चल ही रहा है.
ज़ाहिर है, ऐसे लोग एक खास ढंग के दुष्प्रचार के शिकार भी हैं और माध्यम भी. ऐसे लोग देश के इस मुश्किल समय में विवेक और बुद्धिमत्ता के नहीं बल्कि अंधता और पागलपन के प्रतीक हैं. जोश में होश खोए हुए लोग हैं.
अपनी प्रतिक्रिया और उग्रता के परिणाम और दुष्परिणाम की समझ का इन्हें बिल्कुल भी ध्यान नहीं है. इनकी प्रतिक्रियाओं और दुष्प्रचार ने भारत की छवि को न केवल धक्का पहुंचाया है बल्कि आतंकवादियों को यह अंदाजा भी लगने दिया है कि भारत को एक हमले से बुरी तरह आतंकित किया जा सकता है.
यह प्रतिक्रिया आतंकवादियों को और अधिक हमले के लिए प्रेरित करेगी. वे यहां वहां हमले करके भारत को दहशत से भर देने को अपनी एक बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश करेंगे.
नवजोत सिंह सिद्धू पर यह हमला नया नहीं है. जब से वे भारतीय जनता पार्टी छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुए हैं और कांग्रेस ने उन्हें पंजाब ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर महत्व और मंच दिया है तब से उन पर हमले का जैसे बहाना ढूंढा जाता है. रेल हादसे में उन्हें और उनकी पत्नी को निशाना बनाया गया था. करतारपुर कॉरिडोर के बाद भी उन पर ऐसे हमले हुए थे.
देखने में यह आता है कि उन पर हमले एक ख़ास ढंग और दृष्टि से होते हैं. ये दृष्टि और ढंग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों की होती है जो अपने विरोधियों को अकारण बदनाम करके ठिकाने लगाने के लिए तजवीज़ की गई है और जो उनके ‘बड़े काम’ की साबित भी हो रही है.
सोशल मीडिया ने इस तरह के बदनामी अभियानों के लिए सहज और सुलभ मंच मुहैया कराया है जहां सामान्यतया बिना किसी प्रमाण और उत्तरदायित्व के हैशटैग अभियान चलाए जा सकते हैं. किसी के बारे में कुछ भी प्रचारित और तथ्य-सत्य के रूप में स्थापित किया जा सकता है.
ऐसे में यह मानना गलत न होगा कि मूलत: संघ और इसके अनुषांगिक संगठनों के लोग और उनके प्रचार के प्रभाव में आये वैचारिक रूप से ढुलमुल लोग सिद्धू को विशेष रूप से हानि पहुंचाना चाहते हैं और इसी हानि के उद्देश्य से बिना सिर-पैर के राक्षसीकरण के अभियान चलाये जा रहे हैं.
जब एक बार समान विचार वाली प्रोफाइलों से दुष्प्रचार अभियान का श्रीगणेश हो जाता है तो तुरंत प्रतिक्रिया देने के मोह में लोग न वास्तविकता को जानना चाहते हैं और न उसके परिप्रेक्ष्य को. परिणाम की कौन कहे!
सोशल मीडिया में यह प्रवृत्ति बन गई है. सिद्धू के प्रसंग में भी यही प्रवृत्ति दोहराई गई. हो सकता है कि यदि लोगों ने सिद्धू के विचारों को धैर्य से सुना होता और उस पर शांत होकर सोचा होता तो और उनकी राजनीतिक साख पर विचार किया होता तो ऐसी निराश और हताश करने वाला दुष्प्रचार अभियान न चला होता.
इसलिए यहां आगे के विश्लेषण से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि आतंकी हमले के बाद नवजोत सिंह सिद्धू ने वास्तव में कहा क्या था?
उन्होंने कहा था, ‘आतंकवादी का न कोई देश, न कोई ईमान, न कोई मज़हब होता है.’ पाकिस्तान आतंकवाद को पालता है, संरक्षण देता है. भारत के प्रति वह शत्रुता का भाव भी रखता है. इसलिए विश्वभर में पाकिस्तान की छवि एक आतंकपोषक देश की बनी है.
इसके बावजूद अंतरराष्ट्रीय दबाव में वह आतंकवाद विरोधी समझौतों और वार्ताओं में शामिल भी होता रहा है. स्वयं आतंकवाद से पीड़ित भी रहा है.
इसलिए, सिद्धू का यह कहना कि आतंकवाद का कोई देश नहीं होता पाकिस्तान को क्लीनचिट देने से अधिक उसके भीतर शांति और सद्भाव चाहने वाली शक्तियों की उपस्थिति का रेखांकन है.
इसी उपस्थिति के कारण बातचीत और समझौतों के रास्ते खुलते हैं. भारत सरकार भी एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र-राज्य के रूप में पाकिस्तान के इस रूप पर भरोसा भी करती रही है और आशा भी.
भले ही इसके कोई अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आए हैं लेकिन इसका कोई विकल्प भी नहीं है. युद्ध से समस्या का समाधान संभव नहीं है. यह सभी विशेषज्ञ मानते हैं. अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर बस यात्रा और अन्य आतंकवाद विरोधी वार्ताओं का आधार यही मान्यता रही है कि पाकिस्तान आतंकवाद के मामले में बातचीत और सहयोग करने को तैयार है.
सिद्धू ने कुछ भी नया नहीं कहा फिर भी उन्हें निशाना बनाया जा रहा है. संघ प्रमुख ने पाकिस्तान को भाई कहा और शांति वार्ताओं पर बल दिया लेकिन उनकी कहीं भर्त्सना और निंदा तो दूर कोई आलोचना भी नहीं हुई.
कल्पना की जा सकती है कि यदि सिद्धू ने भाई कह दिया होता या बिना पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के प्रधानमंत्री की तरह पाकिस्तान चले गए होते तो कैसा हंगामा बरपा होता.
इसके अलावा सिद्धू ने जो कहा वह दुनियाभर में आतंकवाद विरोधी राजनीति और राजनय की सर्वस्वीकृत और औपचारिक समझ का हिस्सा है कि आतंकवाद का कोई धर्म, जाति या ईमान नहीं होता. इसमें भी ऐसा कुछ नहीं है जो भारत की सरकारी समझ और स्टैंड के अनुरूप न हो. और, जिसे स्वयं भाजपा की सरकारें न मानती रही हों.
सिद्धू ने आतंकवाद पर केवल शांति वार्ता पर बल नहीं दिया है. उन्होंने कहा कि ‘नदी के दो किनारों की तरह’ शांति वार्ताएं और सैन्य अभियान साथ-साथ चलने चाहिए. ‘अच्छे लोगों’ के साथ वार्ता और ‘बुरे लोगों’ के साथ ‘लोहा लोहे को काटता है’ के अनुसार कड़ी-से-कड़ी सैन्य कार्रवाई.
जाहिर है, उनका यह मत भी सरकारी समझ से अलग नहीं है. सरकार बातचीत और सैन्य कार्रवाई दोनों करती रही है.
इसके अतिरिक्त सिद्धू ने देश के साधारण नागरिक की तरह आतंकवादी हमले की निंदा की, इसके लिए ज़िम्मेदार लोगों पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई की मांग की.
सामान्य भारतीयों की तरह अपना दुख और क्षोभ प्रकट किया. हताहत सैनिकों के प्रति श्रद्धांजलि और उनके परिजनों के प्रति संवेदना भी प्रकट की. इसमें भी ऐसा कुछ नहीं है जिसे असंवेदनशील, अपमानजनक और असंसदीय कहा जा सके.
सिद्धू के पूरे बयान पर विचार और उसका विश्लेषण करने से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा जो देश के हितों और भावनाओं के अनुरूप न हो.
बस, प्रायोजित उन्माद और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के उद्देश्य से चलाए गए आंदोलनों की अंधता और अविवेक के विपरीत उनमें विवेक और बुद्धिमत्ता तथा धैर्य और परिणाम-चिंता दिखाई देती है.
आतंकवाद पर भारत की राष्ट्रीय नीति का प्रतिनिधित्व सिद्धू के बयान में ही होता है, इन अंध अभियानों में नहीं. आतंकवाद के विरुद्ध भारत की बुद्धिमत्ता और शांतचित्तता के प्रतीक हैं. जिसके पक्ष में खड़े होने और लड़ने की आवश्यकता है.
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(यह लेख 20.02. 2019 को द वायर में प्रकाशित हुआ था। लिंक नीचे है।)

मंगलवार, 15 अप्रैल 2014

पुरुषोत्तम अग्रवाल की कहानी ‘चौराहे पर पुतला’ : कला के स्वधर्म और मनुष्य के बौनेपन की ‘स्ट्रांगर, लांगर और थिकर’ कहानी — आनंद पांडेय


                                                                           
पुरुषोत्तम अग्रवाल की लम्बी कहानी चौराहे पर पुतलासांस्कृतिक राष्ट्रवाद के उभार के फलस्वरूप कला और मानवता पर आसन्न फासीवादी खतरे की और धर्मनिरपेक्ष राजनीति और प्रगतिशील संस्कृति दृष्टि के पतन की कहानी है। प्रचलित विमर्शों को इस कथा-सूत्र में विलक्षण ढंग से पिरोते हुए पुरुषोत्तम अग्रवाल ने आज के समय और संस्कृति की कॉमिक-व्यंग्यात्मक समीक्षा की है। 

अपने समय के भारतीय जीवन के सघन, जटिल और बहुस्तरीय यथार्थ की विविध प्रतिध्वनियों से अनुगूंजित यह कहानी महाकाव्यात्मक प्रभाव छोड़ती है। यह कहानी आज के राजनीतिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक जीवन की कॉमिक-व्यंग्यपूर्ण आलोचना है। यह -आद्यांत -सामायिक विमर्शों की हास्यास्पद; और त्रासद भी, विफलता की दास्ताँ है। यह सामयिक भारतीय जीवन की बिडम्बना को बड़े असरदार तरीके से उजागर करती है. इसका सन्दर्भ बहुत व्यापक है, बल्कि वैश्विक है।

एक शहर के समग्र जीवन की कहानी एक पुतले के माध्यम से कही गयी है। बीस साल की कालावधि में फैली इस कहानी का सारांश इसप्रकार है: बीस साल पहले नगरपालिका ने अपने आपको सम्वेदनशीलऔर कलाप्रेमीसिद्ध करने के लिए नगर के सौन्दर्यीकरण का अभियान चलाया था। अभियान के तहत बड़े-बड़े कलाकारों से मयूर’, ‘नर्तक-नर्तकियों’, के साथ-साथ साँवले संगमरमर से पाँच साल के खड़े-खड़े नहाते हुए बच्चे का एक नग्न पुतला भी बनवाया गया था. पुतले की भाव-भंगिमा लेखक के शब्दों में इसप्रकार थी, “पानी लोटे से गिर, पुतले के सर और शरीर से गुज़रता हुआ नाली से निकल जाता था. पुतले के चेहरे पर, मम्मी की मदद के बिना ख़ुद नहाने का आत्म-गौरव, नहाने से आ रहा ताजापनथा. पुतले की यह बहुलार्थक स्नान-भंगिमाजिन सर्जनात्मक तथा वैचारिक उपक्रमों की विषय-वस्तुबनी उनमें प्रमुख थी अश्लीलता-संवेदी राडारोंकी सांस्कृतिक प्रतिक्रिया- ‘’कि पुतले के कारण बहू-बेटियों के चरित्र पर चिंतनीय प्रभाव पड़ रहा है.” (“अधिक सच्चे निष्कर्ष को अप्रकाशित रखने में ही बुद्धिमत्ता समझी गयी थी- पुतले के कारण बहन-बेटियों के चरित्र पर चिंतनीय प्रभाव पड़ रहा हो या न पड़ रहा हो, भाई-बापों के आत्म-विश्वास पर सोचनीय प्रभाव निःसंदेह पड़ रहा था.”) इस राडारोंने अपनी रिपोर्ट स्थानीय सांस्कृतिक राष्ट्रवादीनेता गंगाधरजी को सौंपी. गंगाधरजी की पार्टी तो जानी ही सांस्कृतिकता के लिए जाती थी.” ‘राजनैतिक तीर्थ-लाभके मकसद से उनकी पार्टी ने पुतले को मीडिया के माध्यम से अश्लीलता फ़ैलाने वाला कहकर उसकी निंदा की और पार्टी के पार्षदों को निर्देश भी दिया कि नगर-पालिका में पुतले को हटाने का प्रस्ताव फ़ौरन पेश कर दें। सत्तापक्ष भी इस प्रस्ताव को पास कराना चाहता था। महापौर ने गंगाधरजी को आश्वस्त कर दिया था। लेकिन प्रस्ताव पेश होने के पहले ही मुख्यमंत्री के हस्तक्षेप से महापौर वादे से मुकर गए और प्रस्ताव की कटु निंदा की। पुतले को बनाने वाला कलाकार प्रधानमंत्री का मित्र था इसलिए भी मुख्यमंत्री और महापौर प्रधानमंत्री का कोपभाजन नहीं बनना चाहते थे। गंगाधरजी कुछ नहीं कर सके क्योंकि उनकी पार्टी अल्पमत में थी। इसके बाद से यह मुद्दा धीरे-धीरे स्थानीय से राष्ट्रीय और फिर वैश्विक बन गया। सूचना और प्रसारण-क्रांति के बाद पुतले से जुड़ा विवाद सबके घरों तक में पहुँचने लगा। गंगाधरजी की पार्टी पुतले के पक्ष में खड़े होने वाले कलाकारों और बुद्धिजीवियों के साथ हिंसा और बलप्रयोग करने लगी। बात को बढ़ते देख प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्री को तलब किया, पद से हटाने की धमकी दी। इशारों-इशारों में ही प्रधानमंत्री से मिले आदेश का अनुपालन करते हुए मुख्यमंत्री ने पुतला-विवाद पर एक आयोग का गठन कर दिया। अब सब कुछ आयोग की रिपोर्ट पर निर्भर था। और जैसा कि आयोगों की राजनीति होती है-बहुत अधिक समय लेना। इस आयोग ने भी कला की स्वतंत्रता, कला और राजसत्ता, कला और अश्लीलता जैसे गूढ़ प्रश्नों पर जानकारी लेने के लिए दुनियाभर के फिल्म, कला समारोहों में भागादारी की। दुनिया के सारे दर्शनीय स्थलों की यात्राएं कीं। आयोग को कई कार्य-विस्तार भी मिले। 

पुतले से सांस्कृतिकलोग तो परेशान थे ही लेकिन इसके साथ ही रवि सक्सेना नाम के मार्क्सवादी प्रोफेसर भी परेशान थे; निहायत व्यक्तिगत कारणों से। वे काम विकारों से बीमार इंसानथे। वे स्ट्रांगर, लांगर और थिकर अंगके आत्मविश्वास से वंचित थे। इसलिए उन्हें लगता था कि उनकी पत्नी जया पुतले के अंगकी कामना करती हैं और उनकी क्षमता से असंतुष्ट हैं। इससे उनके मन ने पुतले को रकीबमान लिया और जया को चरित्रहीन। और अब वे भी पुतले के दुश्मन हो गये थे। प्रगतिशील दृष्टि की वजह से वे पुतले को हटा देने की बजाय उसे चड्ढी पहना देने के मौलिक विचार के साथ आये। आयोग की रिपोर्ट आने तक कई मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बदल गये फिर भी सत्ताधारी पार्टी वही रही, गंगाधरजी और रवि सक्सेना तो अपनी जगह पर थे ही। आयोग ने रिपोर्ट में कला की स्वायत्ता को महत्व देते हुए समाज को अश्लीलता से बचाने के लिए पुतले को चड्ढी पहनाने की सिफारिश की। कहानी पुतले के चड्ढी पहनाने के कार्यक्रम के दिन पर ही केन्द्रित है। लेकिन, फ्लैशबैक तकनीकि से पीछे की बातें भी कहती है। पुतले को जब दीवार तोड़कर मुक्त किया गया तब वह लोगों को पच्चीस साल का लगा। चड्ढी तो पाँच साल के लड़के के लिए लाई गई थी। सब लोग हकबका कर चुप हो गए थे।कुछ ने इसके लिए कलिकाल को दोषी ठहराया तो रवि सक्सेना ने इसे पुतले की दुष्टई बताया।

यह कहानी देश की राजधानी दिल्ली से दूर राज्य के एक छोटे-से शहर में घटती है. पहली नजर में यह एक पुतले की कहानी है लेकिन थोड़ा ठहरकर देखें तो यह कहानी एक शहर में गिरते राजनीतिक-सांस्कृतिक और इसलिए मानवीय मूल्यों और प्रगतिशील जीवन-दृष्टि में आती हुई गिरावट की कहानी है। एक तरह से यह उस शहर के बीस साल के इतिहास का सांस्कृतिक सर्वेक्षण भी है और उसका इतिहास लेखन भी. इतिहास को यह करवट केवल इस शहर में ही नहीं दिलाई जा रही थी बल्कि कहानी प्रधानमंत्री (दिल्ली) से लेकर मुख्यमंत्री (दौलताबाद कह लीजिये) तक के माध्यम से अखिल भारतीय स्तर पर व्याप्त है. जैसे श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारीमें रुप्पन बाबू को लगता है, “मुझे तो लगता है दादा सारे मुल्क में यह शिवपालगंज ही फैला हुआ है.वैसे ही यह शहर पूरे मुल्क की कथा और कष्ट समेटे हुए है. पुतले से शहर को ही नहीं सारे देशको संताप था, “पिछले बीस सालों से नगर ही नहीं, सारा देश जी संताप झेल रहा था,....” 

इस बौने समय में मनुष्यता और कला निर्वासित कर दी गयी है। मनुष्यता और कला का निर्वासन पुरुषोत्तम अग्रवाल के कथा साहित्य के केंद्र में है। यह संयोग नहीं है कि कहानीकार की पहली कहानी चेंग चुईभी स्थापत्य कला के एक रूप के अनुसार बने बंगले में निर्वासित अनुभव करते मनुष्य को लेकर लिखी गयी थी। चौराहे पर पुतलामें मूर्ति कला है। मनुष्य की मूर्ति है- पुतला। यहाँ पुतले के रूप में मनुष्य निर्वासित है।
 कहानीकार ने आज के मनुष्य के निर्वासन को अधिक स्पष्टता से उजागर करने के लिए ही पुतले का एक इन्सान के रूप में वर्णन किया है अर्थात् पुतले का मानवीकरण किया है। पुतले के मानवीकरण के माध्यम से उसे आज के मनुष्य के निर्वासन की दर्दनाक स्थिति को व्यक्त करने में अधिक सफलता मिली है।

कहानी का नायक एक पुतला है। एक कला-रूप है। पुतले के माध्यम से वे समाज में मनुष्य के लिए बची जगह की पैमाइश भले ही करते हैं लेकिन यह कहानी मूलतः कला के स्वधर्म की रक्षा की चिंता की कहानी है। कला के स्वधर्म के बहाने मानव-धर्म के लिए सिकुड़ती जगह की चिंता कहानी की केन्द्रीय चिंता है। कला का स्वधर्म, मनुष्य का स्वधर्म है। कला के स्वधर्म का विरोध असल में मानव-धर्म का विरोध है। यह कहानी, कला के स्वधर्म के पक्ष में और मानव-विरोधी समय और संस्कृति के परतों को उजागर करने वाले मानवीय विवेक की कहानी है।

पुतलाएक स्वतंत्र, प्रसन्न, आदिम और अनावृत मानवीय व्यक्तित्व, का प्रतीक, है। मनुष्यता विरोधी समय और संस्कृति उसे पचा नहीं पातीं। सभ्यता की परतंत्रता एक आदिम मानवीय रूप को स्वतंत्र और जीवित नहीं रहने देना चाहती। उस सांस्कृतिक विमर्श का बोलबाला है जिसे कलाओं में अभिव्यक्त होने वाला मनुष्य का आदिम और अनावृत रूप अश्लील लगता है। और, जिसका अभिप्रत सेंसर्ड और पराधीन मानवता है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की इस मानवता-विरोधी, कला विरोधी राजनीति को कंुठित और स्त्री-विरोधी प्रगतिशील (?) बौद्धिक लोगों का साथ मिलता है। ढुलमुल और नाप-तौल कर चलने वाली राजनीति कला को, मनुष्य को न केवल बचा पाने में असफल होती है बल्कि वह भी उनके साथ हो लेती है - मनुष्यता और कला की स्वतंत्रता के हरण के लिए। उसे सेंसर करने के लिए तीनों में होड़ लग जाती है। फलस्वरूप पुतले को चढ्ढीपहनाने के सांस्कृतिक अभियान की विजय होती दिखायी देती है। बहुत दिनों से चारदीवारी में कैद करके निर्वासित की गयी कला - मनुष्यता को सेंसर करने का प्रयास किया जाता है, अर्द्ध-पराधीन कर दिया जाता है।

आज की दुनिया में किसी समुदाय की भावना-आहत होने के और अश्लील होने के आरोप में कलाकृतियों, रचनाओं और फिल्मों पर प्रतिबंध लगाने की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं। कलाकारों-लेखकों को देशनिकाला दे दिया जाता है। मकबूल फिदा हुसैन, सलमान रूश्दी और तस्लीमा नसरीन के साथ जो कुछ हुआ और हो रहा है उससे कौन संवेदनशील हृदय चिंतित नहीं है? ‘चौराहे पर पुतलामें लेखक ने इन्हीं चिंताओं को व्यापक परिप्रेक्ष्य में वाणी देने की कामयाब कोशिश की है। इसलिए इसे कला के स्वधर्म की रक्षा करने वाली कहानी कहना चाहिए।

प्रतिरोध की आवाजें कहानी में जिस तरह गुम हैं, उससे यह स्पष्ट है कि स्वतंत्र मनुष्य के प्रतीक, कला के स्वधर्म के प्रतीक पुतले को पूर्णतया लुप्त या पराधीन करने की दिशा में चढ्ढी पहनाने की सांस्कृतिक कार्यवाही पहला कदम है। ध्यान रखें, आखिरी नहीं। और वह दिन दूर नहीं जब पुतला हटा दिया जाएगा, जब मनुष्य-धर्म, कला का स्वधर्म विलुप्त कर दिया जाने वाला है। यह कहानी कला के स्वधर्म और मनुष्यता के संकटग्रस्त होने की सूचना और फासीवाद की आसन्न आहटों की ओर ध्यान देने, कान देने के लिए सावधान करती है। यह मानवता विरोधी, कला विरोधी समय में फँसी मनुष्यता, कला को देखने के लिए आँख खोल देने वाली कहानी है।

समय के बौनेपन की इन्तहां यह है कि लोगों को 20 सालों में 5 साल का पुतला 25 साल का लगने लगता है। इस प्रसंग के वर्णन में लेखक ने कुछ-कुछ जादुई यथार्थवादी शैली का सहारा लिया है। जिससे लगता है कि पुतला सचमुच में बढ़ गया है लेकिन, सच तो यह है कि विकास पुतले में नहीं हुआ है बल्कि इसके विपरीत संकुचन आदमी में हुआ है। उसमें संकीर्णता बढ़ी है। सांस्कृतिक राष्ट्रवादी राजनीति और नैतिकतावादी दुराग्रहों के फलस्वरूप 20 सालों में आदमी में बौनापन आया है। जिस अनुपात में यह बौनापन बढ़ा है, उसी अनुपात में निर्जीव पुतले की उम्र अधिक लगती है। जिन आँखों को गोल दीवारों में कैदपुतला दीवारों को तोड़ने के बाद 25 साल का लगता है, वे आँखें स्वयं गोल दीवारों की कैदमें हैं। सच तो यह है कि पुतले को कैद करने के पहले ये आँखें स्वयं को कैद कर चुकी थीं। इसी कैद से पुतले को कैद करने का विचार प्रसूत हुआ था। और तब से ये आँखें और पुतला दोनों कैद में रहते आये हैं।

बिडम्बना यह है कि इसके लिए राजनीतिक वर्ग में सर्वसम्मति है। आज जिसे पुतले की मुक्ति और आँखोंको संताप से मुक्त करने का सांस्कृतिक-राजनीतिक कार्यक्रम कहा जा रहा था और जिसमें मुख्यमंत्री, प्रतिपक्ष के नेता और प्रगतिशील बुद्धिजीवी के साथ-साथ मीडिया और नगर की जनता शामिल थी, वह असल में सांस्कृतिक पतन के एक चरण पूरे होने का उत्सव था। जिसमें पुतले और संस्कृति की कैद पर वैधानिक, लोकतान्त्रिक, धार्मिक, बौद्धिक और न्यायिक मुलम्मा चढ़ना था। इससे उपजी स्थिति - सांस्कृतिक पतन और उसके सर्वग्रासी रूप की भयावहता- का कहानीकार ने कॉमिक-व्यंग्य शैली में वर्णन किया है। इस जुलूस, जिसमें ’’राजनैतिक जुलूसों वाला छिछोरा जोश नहीं, धार्मिक चल-समारोह सरीखा भावपूर्ण उत्सव था।’’ को देखकर मुक्तिबोध की कहानी अँधेरे मेंके रात में निकलनेवाले जुलूस की सहज ही याद आ जाती है, जिसमें डोमाजी उस्ताद, राजनेता, कवि, पत्रकार सब शामिल थे। ‘‘चौराहे पर पुतलामें भी सब मिले हुए हैं, सब एक साथ हैं। 

चड्ढी असल में पुतले को नहीं बल्कि मानवीय विवेक को पहनाई गयी है। चड्ढी से पुतले की नग्नता को नहीं ढँका गया है बल्कि इससे समय के बौनेपन को ढँकने की कोशिश की गयी है। कहानीकार की सफलता यह है कि पुतले को चड्ढी पहनाने के बहाने उसने भयावह समय के तहों से पर्दा उठा दिया है। ‘‘गंगाधरजी को समझ नहीं आ रहा था कि इस उलटबाँसी का क्या अर्थ निकालें कि जीवित होने का दावा करने वाले मनुष्य जिस कलिकाल में बौने होते जा रहे हैं, उसी कलिकाल में पत्थर का यह जड़ पुतला अपने कद में बढ़ता चला गया था। जो चड्ढियाँ पुतले को पहनाने के लिए लायी गयी थीं, वे उसकी निर्वस्त्रता के आगे छोटी पड़ गयी थीं, और उसे चड्ढी पहनाने पर आमादा अक्लें उसकी हिमाकत के सामने बौनी हो गयी थीं।’’

बौद्धिक वर्ग के प्रतिनिधि चरित्र रवि सक्सेना के माध्यम से कहानीकार ने बौद्धिक वर्ग की भी आलोचना की है। अवसरवादी, भटका हुआ स्त्री विरोधी बौद्धिक वर्ग कैसे इस पतन में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की राजनीति के काम आता है, रवि के चरित्र के माध्यम से कहानीकार इस स्थिति को विस्तार से दिखाया है। रवि प्रगतिशील और वामपंथी होने के बावजूद फ्रायडीय चिंताओं से परेशान मर्दवादी हैं। उन्हें लगता था कि पुतला उनके वैवाहिक जीवन को नष्ट किए दे रहा है। वे लगभग कामविकारों के रोगी हो चुके थे इसलिए पुतले को शत्रु मानने लगे थे। ऐसे प्रगतिशीलों के स्त्री विरोधी चरित्र को कहानीकार ने विस्तार से उकेरा है, ‘‘प्रगतिशीलता के चक्कतर में कब तक उस हरामी पुतले को इजाजत देता कि वह मेरी लुगाई को लुभाता रहे .... प्रगतिशील हूँ, वामपंथी हूँ नामर्द तो नहीं।’’ यह एक हास्यास्पद चरित्र है।

इसके अलावा लेखक-कलाकार सब इस स्थिति में इतना ढल गए थे कि वे कला के स्वधर्म की रक्षा के प्रति बेपरवाह हो चुके थे। ‘‘रहे कलाकार, लेखक आदि, सो उनमें से अधिकांश धीरे-धीरे मानने लगे थे कि यार, ‘और भी ग़म हैं, ज़माने में पुतले के सिवा।’’’ कला की स्वायत्तता के लिए वे कलाकार भी अब उदासीन हो गये हैं, जो राजसत्ता से मेल-जोल बनाकर कला का व्यापार करते हैं। बौद्धिक और कलाकार-समुदाय की यह अवसरवादिता और उदासीनता सबसे ज्यादा अखरती है। समय और संस्कृति का बौनापन इतना सर्वग्रासी है कि लेखक, बृद्धिजीवी और कलाकार भी उसमें शामिल दिखायी देते हैं। सबके लिए बहाना यह है कि ‘‘न्यायिक प्रक्रिया का सम्मान सबको करना ही होगा।’’ कहानीकार ने इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति पर चोट की है। एक प्रगतिशील, कला के स्वधर्म के प्रतिबद्ध लोकतांत्रिक मिजाज के बौद्धिक-कलाकार समुदाय की कमी भी स्थिति के बदतर होने के लिए जिम्मेदार है। कहानीकार की अंतर्दृष्टि यही कहती है कि ऐसे सुदृढ़ और गतिशील बौद्धिक-कलाकार समुदाय के बिना स्थिति को बदला नहीं जा सकता है, मनुष्य और कला के लिए जरूरी जगह निर्मित नहीं की जा सकती है। मनुष्य और कला का संघर्ष एक ही है।

जिन बहू-बेटियोंके चरित्र की रक्षा के नाम पर सारा पुरुषवादी सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व्यापार चलाया जा रहा है, उनका पक्ष सचमुच में अनुपस्थित है। कोई उनका पक्ष जानने की कोशिश नहीं करता है- न बुद्धिजीवी, न राजनीति और न ही न्यायिक आयोग। ऐसे में इस स्थिति का सबसे अधिक शिकार औरतें ही होती हैं। जया के चरित्र के माध्यम से कहानीकार ने पूरे सांस्कृतिक-लोकतांत्रिक-न्यायिक-धार्मिक माहौलमें स्त्री की पराधीनता और उसके निर्वासन को बड़े मार्मिक ढंग से उजागर किया है। ‘‘जया कभी-कभी सोचती थी कि मुझे तो बस पुतले को देख कर हँसी आई थी, रवि को मेरे गालों पर लाज की लाली कैसे दिख गयी? मैं पुतले को देख कर कम हँसी थी, और रवि के भोल से बुद्धूपन पर अधिक। इस भोलपन को बेवकूफी में किसने बदला? जिस प्यार से मैं हँसी थी, उसे बेतुकी तुलना में किसने बदला? दोस्ती की जिस जमीन पर खड़ी मैं हँस रही थी, उसमें निराधार ईर्ष्या की बारूदी सुरंग किसन लगाई? जया इन प्रश्नों के उत्तर जानती थी, लेकिन जानने का फायदा क्या था?’’ सब कुछ जानते हुए भी वह कुछ बोलने के लिए स्वतंत्र नहीं थी। ‘‘जया के लिए तय करना मुश्किल हो चला था कि वह इस बीमार इंसान पर दया करे या इस कूढ़मगज, जिद्दी पति पर एक हाथ जमा दे।’’ उक्त अंश आज के स्त्री-चेतना और आधुनिकता के दौर में स्त्री की बेबसी और पराधीनता को बड़े कारुणिक ढंग से व्यक्त करते हैं।

कहानी में सामयिक विमर्शों की महत्वपूर्ण और अर्थपूर्ण उपस्थिति है। विविध सामयिक विमर्शाें की भाषा और अनुगँूज पूरी कहानी में व्याप्त है। इसलिए यह कहानी अपनी संरचना में अच्छी-खासी बौद्धिक कहानी है। विभिन्न विमर्शों को एक साथ रखकर इतनी रचनात्मकता पैदा करना निश्चय ही एक बड़ी संवेदनात्मक और रचनात्मक चुनौती रही होगी। लेकिन, हास-परिहास और व्यंग्य की आद्यांत अंतर्धारा में ये विमर्श उपस्थित होकर भी रचनात्मकता को बाधित नहीं करते हैं। हाँ, यह अवश्य है कि दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियों के आदती के लिए इस कहानी को समझना ज़रा मुश्किल हो सकता है। इस कहानी को समझने के लिए एक निश्चित स्तर की बौद्धिकता जरूरी लगती है। 

इन विमर्शों की शब्दावली और पद-बंध सीधे-सीध कहानी में प्रयोग किये गये हैं। लेकिन भाषा जिस तरह से खिलंदड़ई करते हुए, पाठक को चकित करते हुए आगे बढ़ती है उसमें ये जरा भी अखरते नहीं हैं। शारीरिक-समीक्षा’, ‘लुगाई-लुभावन’, ‘पधराये रहेंगी’, ‘सांस्कृतिक-ठुकाई’, ‘आनंद-कथा’, ‘बिगूचन-तत्व’, ‘बिटर-बिटर आँखें खोले रहने वालीजैसे नये-नये शब्द प्रयोगों और परवारे’, ‘खोंचड़जैसे कई विस्मृत हो चुके शब्दों की वापसी से भरी भाषा में विमर्शों की शब्दावली और पद-बंध खप जाते हैं और रचना के भावबोध और विचारलोक को बहुश्रुत और स्तरीय बनाते हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, भारत माता की अवधारणा, दक्षिणपंथ, इतिहास-देवता, फ्रायडवाद, मनोविश्लेषण, राजनीति और साहित्य, पतनशील सामंतवाद, मार्क्सवाद, वर्गच्युत, प्रगतिशील, वामपंथ, मेल शाविनिज़्म, समता, स्वाधीनता, कुंठा, संत्रास, न्यायिक आयोग, निर्वासन, अकेलापन, कला और अश्लीलता, भोक्ता और रचयिता, अस्मिता, कलात्मक अभिव्यक्ति की स्वाधीनता, राज्य सत्ता और कला, लोकतंत्र, पुरुषवाद, प्रतिक्रियावाद, इंफोटेनमेंट क्रान्ति, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, वैज्ञानिक दृष्टि, आधुनिकतावाद, अनुभव और अनुभूति, इकॉनामी ऑव स्केल, हृदय-परिवर्तन, ऐतिहासिक भूल, वस्तुनिष्ठ ऐतिहासिक आकलन, द्वंद्वात्मक पद्धति, थीसिस-ऐंटी थीसिस, सिन्थेसिस, मध्य-मार्ग, कलावाद, कलात्मक मूल्य, कलाकृति की इयत्ता, कला की स्वायत्तता, कानून का राज, कलियुग, पालिटिकली इनकरेंक्ट, और सार्वजनिक नैतिकता जैसे पद विविध विमर्शों का प्रतिनिधित्व करते हैं। विमर्शों की शब्दावली और पद-बंध कहानी को बहुलार्थी और अर्थसघन बनाते हैं। हिंदी के कई मुहावरों का भी रचनात्मक प्रयोग पाठकों का ध्यान खींचता है।

कोई भी रचना अपने समय के यथार्थ को अभिव्यक्त करती है। लेकिन वह सामयिक घटनाओं और तथ्यों की रपट नहीं होती है। यह कहानी भी यथार्थपरक है। वह यथार्थ जो हमारे राजनीतिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक जीवन के अनुभवों की प्रामाणिकता पर आधारित है। इसमें समकालीन घटनाओं, व्यक्तियों और विमर्शों की उपस्थिति है। अपने समय की विभिन्न घटनाओं की अनुगूंज इस कहानी में सुनाई देती है। समकालीन जीवन की न जाने कितनी घटनाओं, व्यक्तियों और विमर्शों की प्रतिध्वनि और रेखांकन कहानी में आपको मिलेगा। यह हर पाठक की अपनी जानकारी और समझदारी पर निर्भर करेगा। फिर भी यह कहानी न समकालीन घटनाओं का रिपोर्ताज है और न ही प्रतिछवि। यह कहानीकार के अपने युगीन यथार्थ की रोचक पुनरर्चना है। यही होता है साहित्य। यही होती है यथार्थपरक कला।

विचरना मीरा के देश में ख़रामा-ख़रामा

विचरना मीरा के देश में ख़रामा-ख़रामा -आनंद पांडेय मीरा भक्ति-आंदोलन की सबसे समकालीन लगनेवाली कवयित्री हैं। वे आज भी हमारे मन-मस्तिष्क को...