शनिवार, 24 सितंबर 2011

संसदीय राजनीति और नागरिक समाज

संसदीय राजनीति और नागरिक समाज

-आनंद पांडेय

आजकल भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन ने संसदीय राजनीति के पतन को उघाड़ने और सरकार की उपस्थिति को एक शोक गीत के रूप में प्रतीकित कर दिया है. अन्ना हजारे के नेतृत्व वाले इस आन्दोलन को व्यापक लोकप्रियता मिली है और इस आन्दोलन की शक्ति और संभावनाएं अभी भी बनी हुई हैं. इस आन्दोलन का वैचारिक विरोध भी हो रहा है. समाज के अलग-अलग वैचारिक और जातीय वर्गों की तरफ से. कोई इसे प्रतिक्रांतिकारी कह रहा है तो कोई इसे सवर्ण-हिंदूवादी. इसके साथ ही साथ अन्ना के अतिरिक्त संगठन कर्यकर्ताओं पर भी तरह-तरह से उंगलियाँ उठ रही हैं. लेकिन असल में इस आन्दोलन और इसके पहले के सारे जनांदोलन बुनियादी रूप से पतित हो चुकी संसदीय राजनीति पर अब सीधे-सीध उंगली उठा रहे हैं.

जो लोग यह सोचते थे कि जनता अब केवल राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के हाथों बंधक हो गयी है और उसे केवल खरीदा, धमकाया और भटकाया जा सकता है, उन्हें भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन एक पहेली लग रहा है. इस आन्दोलन का महत्व इसी बात में है कि इसने पूरे राजनीतिक वातावरण के लिए एक ताज़ा हवा का झोंका की तरह से काम किया है. अन्ना द्वारा प्रस्तावित लोकपाल विधेयक पर बहस का विकल्प खुला हुआ है और उनकी बातों से सहमति और असहमति दोनों स्वाभाविक हैं. यह उल्लेखनीय है कि, अपने उद्देश्य और चरित्र में यह आन्दोलन न केवल संसदीय आन्दोलन है बल्कि संसदीय राजनीति का पूरक भी है. भ्रष्टाचार के दीमक और घुन से मुक्त कर संसदीय राजनीति को फिर से चमकाने और धार देना ही जाने या अनजाने इस आन्दोलन का चरित्र और नियति है, शायद नीयत भी. निजी तौर पर भी इस आन्दोलन के संगठन कर्त्ता और नेता आमूल व्यवस्था-विरोधी या 'क्रांतिकारी' नहीं हैं. जैसे माओवादी-नक्सलवादी होते हैं या फिर दक्षिणपंथी-फासीवादी. अन्ना हजारे सेना में थे तो किरण बेदी और अरविन्द केजरीवाल राज्य का सबसे अधिक प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाओं, पुलिस और अफसरशाही, में बड़े पदों पर रहे हैं. शांति भूषण केंद्र में मंत्री रहे और वकालत करते हैं. उनके बेटे प्रशांत भूषण भी भारतीय दंड संहिता का व्यापार करते हैं. कुलमिलाकर खा जाय तो ये सब-के-सब व्यवस्था का अंग हैं या रहे हैं. इसी तरह मुख्यधारा के सिविल सोसाइटी के अधिकांश संगठनों का व्यवस्था से सम्बन्ध है या रहा है. ऐसे आंदोलनों का नुकसान तात्कालिक रूप से किसी भी राजनीतिक दल को हो या सभी दलों का हो क्योंकि कोई नया दल अस्तित्त्व में आ जाय.लेकिन दीर्घकालिक फायदा संसदीय प्रणाली का ही होता है या होगा. शायद इसी कारण कुछ माओवादी और व्यवस्था विरोधी इस आन्दोलन का विरोध कर रहे हैं. क्योंकि ऐसे आन्दोलन व्यवस्था की सडन को दूर करते हैं और ताजगी प्रदान करते हैं, जिससे वह दीर्घजीवी हो उठती है. पिछले करीब दो दशकों में सिविल सोसाइटी की हैसियत, ताकत और लोकप्रियता बढ़ी है. इसका प्रमाण यह है कि पिछली यूपीए सरकार जिन उपलब्धियों को लेकर गौरवन्वित महसूस करती थी और जो उसके दुबारा चुने जाने में मददगार बनीं उनमें से कई सिविल सोसाइटी के आंदोलनों और मांगों की उपज थीं. सूचना का अधिकार (अरुणा रॉय), राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (ज्यां द्रेज़), फरह नकवी और हर्ष मंदर सांप्रदायिक हिंसा (रोकथाम, नियंत्रण और पीड़ितों के पुनर्वास) विधेयक इत्यादि का नाम लिया जा सकता है. सिविल सोसाइटी को अगर कार्पोरेट सेक्टर के बरक्स देखा जाय तो इसकी वास्तविक शक्ति का पता चलेगा. आज सरकार को एक तरफ कार्पोरेट सेक्टर की बातें और मांगें मनानी पड़ रही है तो दूसरी तरफ सिविल सोसाइटी की. राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् की भूमिका कस बरक्स सरकार के तमाम सलाहकार और पदाधिकारियों के बारे में यही बात लागू होती है. प्रधानमंत्री समेत मोंटेक सिंह अहलूवालिया और पी चिदंबरम, कौशिक बासु, नंदन निलेकनी आदि कार्पोरेट सेक्टर के हिमायती हैं तो सलाहकार परिषद सिविल सोसाइटी के कार्य कर्र्ताओं के कारण जनता की या वैकल्पिक नीतियों की हिमायती है. एक तरह से इसे कार्पोरेट सेक्टर और सिविल सोसाइटी के बीच संतुलन बनाने का माध्यम भी माना जा सकता है और प्रकारांतर से पूंजीवादी नीतियों और जनवादी नीतियों के बीच भी. सरकार क्यों अपनी कल्पना शक्ति में इतनी कमजोर हो गयी है कि वह बस मुहर लगाने वाली संस्था हो गयी है. संसद के बारे में भी यही सही है. इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो अर्द्ध औपनिवेशिक स्थिति में नव साम्राज्यवाद और उदारीकरण की नीतियों ने जहाँ सरकार की हैसियत को दोयम दर्जे का बना दिया और उसे लगभग जनविरोधी बना दिया है तो सरकारों की सामाजिक और वैचारिक भूमिका को सिविल सोसाइटी ने अपने हाथ में लिया है. प्रश्न यह उठता है कि सिविल सोसाइटी की बढ़ती शक्ति और लोकप्रियता का राज क्या है? सबसे महत्वपूर्ण बात तो यही कि राजनीतिक पतन ने इसके लिए रास्ता तैयार किया.संसदीय लोकतंत्र पार्टियों की आंतरिक राजनीति का दर्पण होता है. बेहतर राजनीतिक दलों के संसदीय राजनीति सफल नहीं हो सकती. आज का संकट दलों के राजीतिक स्तर का प्रतिफल है.राजनीतिक दलों की कार्य प्रणाली ऐसी हो गयी जिसमें वैचारिक, सज्जन और नैतिक लोगों के लिए जगह ही नहीं रह गयी. पार्टियों में जाति, धर्म और धन-बल, बाहु-बल के आधार पर जगह बनने लगी. कार्पोरेट जगत ने अपने लिए काम करने वाले नेताओं को चिन्हित कर लिया. नेताओं में कार्पोरेट जगत के सबसे करीबी होने की स्पर्द्धा होने लगी. ऐसे में जो व्यक्ति सैद्धांतिक लाइन लेने वाले थे, कार्पोरेट के हाथ बिकने और मतदाताओं को खरीदने की हद तक नहीं गिर सकते थे, उनके लिए दलों में कोई जगह नहीं बची. राजनीति में विचारधारा और सिद्धांत का अंत हो गया. अवसरवाद एकमात्र सिद्धांत और पूंजीवाद एकमात्र विचारधारा हो गयी. ऐसे परिवेश में जो लोग कुछ अलग करना चाहते थे उनके लिए एक मात्र रास्ता बचा, गैर सरकारी संगठन बनाकर काम करो. आज जनांदोलन राजनीतिक दल नहीं, ये संगठन कर रहे हैं. राजनीतिक दलों ने ऐसे लोगों को साथ रखने की योग्यता दिखाई होती तो सिविल सोसाइटी के बहुत सारे चेहरे उनके साथ होते! आखिर उनको संसदीय लोकतंत्र से कोई सैद्धांतिक दिक्कत तो है नहीं.

अगर हम भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के सन्दर्भ में दलीय राजनीति की राजनीतिक समझदारी और लोकतान्त्रिक संवेदनशीलता को परखें तो वह मूर्खतापूर्ण और राजनीतिक विवेक से शून्य हो गयी है. सरकार ने वह सब कुछ किया जो उसे करना चाहिए था लेकिन सब कुछ खोकर, अपनी इच्छा से नहीं जन-दबाव में आकर. पूरे समय एक राजनीतिक नेतृत्व की कमी खलती रही. इस विवेक शून्यता का कांग्रेस को ही भुगतना होगा, प्रकारांतर से उसने संसदीय प्रक्रिया की भी साख को काम किया. आन्दोलन ने प्रश्नों को अनजाने ही उठा दिया है उनमें से दलीय राजनीति का प्रश्न भी है. उसने दलीय राजनीति में सुधार और उसके स्तर को और अधिक ऊँचा उठाने की जरूरत को रेखांकित किया है. अब देखना है कि राजनीतिक दल इससे कितनी सीख लेते हैं. इस सीख पर ही न केवल संसदीय राजनीति का भविष्य निर्धारित होगा बल्कि सिविल सोसाइटी कि भूमिका और जगह भी तय होगी.

विचरना मीरा के देश में ख़रामा-ख़रामा

विचरना मीरा के देश में ख़रामा-ख़रामा -आनंद पांडेय मीरा भक्ति-आंदोलन की सबसे समकालीन लगनेवाली कवयित्री हैं। वे आज भी हमारे मन-मस्तिष्क को...