गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

डर्टी पिक्चर : देह से मुक्ति का राग




डर्टी पिक्चर : देह से मुक्ति का राग
डॉ आनंद पाण्डेय





स्त्री मुक्ति का सपना आज भी मानव-समाज के लिए एक चुनौती है. फिल्म, साहित्य, राजनीति और कलाओं में विभिन्न रूपों में स्त्री मुक्ति की तड़प और प्रयास दिखाई देते हैं.खासतौर पर जब किसी कथा, कला, या फिल्म की रचना के केंद्र में स्त्री का चरित्र हो तब स्त्री-मुक्ति के संदर्भ में उसकी सफलता-असफलता का मूल्यांकन किया जाता है. सहज ही स्त्री मुक्ति का प्रश्न उसके मूल्यांकन की एक केन्द्रीय कसौटी हो जाता है. मिलन लूथरिया की हालिया फिल्म 'डर्टी पिक्चर' ने स्त्री मुक्ति के प्रश्न को आज के सामान्य पढ़े-लिखे तबके से लेकर गंभीर बुद्धिजीवियों के बीच में फिर से उठा दिया है.

सामान्य दर्शक जो किसी फिल्म को सिर्फ मनोरंजन के लिए देखता है, उसके लिए यह फिल्म एक मसाला फिल्म है. जिसमें जीरो साइज़ की बालीवुड नायिकाओं से ऊबे दर्शक को दक्षिण की फिल्मों की मांसल देह यष्टि वाली नायिका के दर्शन होते हैं और जो उसे खूब भाई भी है. लेकिन एक वर्ग है जो पॉपुलर कल्चर को बौद्धिक विषय बनाकर उसे विचारधारा या सामाजिक सरोकारों के आधार पर देखता-परखता है. इस वर्ग का एक हिस्सा इस फिल्म को वैसे ही ख़ारिज करता है जैसे फिल्म का एक नायक इब्राहीम (इमरान हाशमी) करता है. तो दूसरा हिस्सा फिल्म को नारी-मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध फिल्म की तरह से लेता है. और उसे देह पर अधिकार के माध्यम से नारी मुक्ति की समर्थक फिल्म मानता है. हमें ऐसी कोई जानकारी नहीं मिली है कि फ़िल्मकार ने कोई प्रतिबद्ध फिल्म बनाने के मकसद से यह फिल्म बनायी है. फिल्म की एक महिला पत्रकार की सिल्क के चरित्र और व्यक्तित्व पर की गयी सकारात्मक टिप्पणियों के आलावा इस वर्ग के लोगों के पास स्त्री- विमर्श की वह देह-केन्द्रित मान्यता भी तर्काधार के रूप में मौजूद है जिसके अनुसार स्त्री के देह पर पुरुष का अधिकार है, अगर स्त्री अपने शरीर पर दावा करती है तो यह एक मुक्तिकामी प्रयास है.

हाँ, यह सही है कि जब स्त्री अपने देह पर अपना अधिकार दिखाती है तो वह उस पर पुरुष के आधिपत्य को चुनौती देती है. स्त्री विमर्श में भी स्त्री की लैंगिकता और देह को अपने इच्छानुसार इश्तेमाल करने को उसकी मुक्ति का एक रास्ता माना गया है. इन बातों से यहाँ इंकार की बजाय यह स्थापित करने कि कोशिश की जा रही है कि इस मान्यता की सीमायें स्पष्ट हैं और अनुभव यह बताता है कि इससे स्त्री की मुक्ति संभव नहीं है. मुक्ति की स्थिति उद्देश्य की पूर्णता है. देह मुक्ति से स्त्री मुक्ति नहीं हो सकती. मुक्ति के लिए चेतना की मुक्ति अनिवार्य शर्त है. देह की मुक्ति आरंभिक अवस्था या एक लक्षण है. उद्देश्य की पूर्णता की अवस्था नहीं. बल्कि इससे वह कई ऐसी समस्याओं से घिर जाती है जो उसे और अधिक विवश और पुरुष के लिए सहज लभ्य बना देती हैं. 'डर्टी पिक्चर' की सिल्क एक ऐसी ही लड़की है. 'डर्टी पिक्चर' स्त्री को, अगर वह ऐसा करने का दावा करती है तो, ऐसी ही मुक्ति को सुझाती है जो उसे और नयीं समस्याओं में डाल देती है. और नायिका दुरूपयोग को विवश हो जाती है और अपराधबोध में आत्महत्या कर लेती. यही मुक्ति के शरीरधर्मी प्रयासों की त्रासदी है. यही सिल्क की त्रासदी है.

मुक्ति के इस तरह के देहधर्म-केन्द्रित विमर्श की विडंबना को उजागर करने के लिए सिल्क का चरित्र बहुत मौजू है. वह प्रेम-आकर्षण से फिल्म में आती है, देह के बल पर आगे बढती है, प्रतिशोध में तबाह होती है और इस्तेमाल हो जाने के अपराधबोध से मर जाती है. जहाँ सिल्क का अंत होता है वहां से स्त्री मुक्ति का कौन-सा चरण शुरू होता है? वह आत्महत्या करती है लेकिन उसकी आत्महत्या शहादत नहीं है जो बदलाव की प्रेरणा पैदा करने में सक्षम होती है. वह अँधेरे में आत्महत्या करती है, अकेलेपन में. अगर उसने पुरूषवाद के लिए कोई तार्किक चुनौती पेश की होती तो समाज उस पर पिल पड़ता. तब शायद उसकी हत्या हो जाती या तसलीमा की तरह देश निकाला दे दिया गया होता. सिल्क की त्रासदी देह-केन्द्रित स्त्री मुक्ति के विमर्श की त्रासदी है. ऐसे विमर्श को बढ़ावा देने की बजाय यह फिल्म उसकी निरर्थकता को प्रमाणित करती है. ऐसे विमर्श की विडम्बना को प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करती है. इस नजरिये से देखें तो यह एक सफल फिल्म है और सार्थक भी. प्रतिबद्ध भी और सामाजिक भी.

सिल्क में मुक्ति की व्यवस्थित चेतना का अभाव है. यह क्या, उसमें मुक्ति की लालसा का भी अभाव है. क्या उसमें विद्रोह-भावना है? वह अपने फ़िल्मी कैरियर में कामयाब होने के लिए स्त्रीत्व के सम्रग्र आख्यान की बजाय, उसके बाजारू रूप का सहारा लेती है. वह वही करती है जो फ़िल्मी दुनिया के बारे में 'कास्टिंग काउच' के नाम से ज्यादा जाना जाता है . पुरुष स्टार के प्रति उसके मन में प्रतिशोध भी कोई सामाजिक आयाम नहीं ग्रहण करता बल्कि एक प्रेमिका के सामाजिक अधिकार से वंचित होने का प्रतिशोध है. वह स्टार के प्रति बचपन से आकर्षण अनुभव करती थी, वह उसे अपना सब कुछ दे देती है लेकिन स्टार यही समझता रहा की यह लड़की भी उन कई लड़कियों की तरह ही है जो अपने शरीर के बल पर धन-दौलत और स्टार बनना चाहती हैं. लेकिन वह एक प्रेमिका का अधिकार चाहती है. नहीं मिलने पर बगावत कर बैठती है और उसे बर्बाद करने की कोई भी प्रविधि इश्तेमाल करती है. इसमें वह कहाँ स्त्री मुक्ति की भावना से लैश रहती है? या उस भावना को आगे बढ़ाती है?

जो लोग यह मानते हैं की 'डर्टी पिक्चर' शरीर के माध्यम से मुक्ति का प्रयास है उहें यह देखना चाहिए कि फिल्म उनकी इस बात का समर्थन करने की बजाय इसका खंडन करती है. शरीर केन्द्रित मुक्ति का प्रयास जहाँ औरत को समस्याओं में उलझाकर उस बर्बाद कर देता है वहीँ उसका वस्तुकरण भी कर देता है. जहाँ स्त्री बाजार के एक उत्पाद की तरह है. दुनिया की क्रय शक्ति का अधिकांश पुरुषों के पास ही तो है. जब वे उसे बंधक बनाकर नहीं रख पाएंगे तो खरीद लेंगे. चाहे उस फिल्मों में गरम सीन देने वाली अभिनेत्री के रूप में या विश्व सुंदरी के रूप में या एक सेक्स वर्कर के रूप में. इस वस्तुकरण से बचना स्त्री के लिए बहुत जरूरी है क्योंकि यह उसके अमानवीकरण का आकर्षक माध्यम भी है, जिसे बाजार एक षड़यंत्र की भांति रचता है. यह फिल्म शरीर धर्मी मुक्ति-विमर्श की विडंबना को उजागर करती है.
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