नवजोत सिंह सिद्धू के विरुद्ध घृणा-अभियान का सच
आनंद पांडेय
पुलवामा में आतंकवादी हमले पर अपनी प्रतिक्रिया को लेकर पंजाब सरकार के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू भयानक दुष्प्रचार और उन्मादी हमलों के शिकार हो रहे हैं. यह दुष्प्रचार अभियान इतना प्रभावशाली है कि लोग उनके पक्ष में बोलने और लिखने से कतराने लगे हैं.
कहने की आवश्यकता नहीं कि सिद्धू पर किया जा रहा हमला उस व्यापक परियोजना का एक हिस्सा है जिसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बुद्धिजीवियों को कुचलकर फासीवादी सत्ता की स्थापना के लिए चलाया जा रहा है.
साम्प्रदायिक उन्माद और युद्धोन्माद के बहाव में कोई उन्हें खालिस्तानी, देशद्रोही और पाकिस्तान का एजेंट कह रहा है तो कोई उनकी पत्नी को उनसे तलाक लेकर अपनी देशभक्ति साबित करने के लिए कह रहा है.
कहना न होगा यह न केवल उनके परिवार और व्यक्तिगत जीवन को इस अनपेक्षित दुष्प्रचार में खींचने की निंदनीय कोशिश है बल्कि उनके प्रति अकारण और अविवेकपूर्ण घृणा की अभिव्यक्ति भी है. कपिल शर्मा के हास्य कार्यक्रम से निकालने के लिए दुष्प्रचार चल ही रहा है.
ज़ाहिर है, ऐसे लोग एक खास ढंग के दुष्प्रचार के शिकार भी हैं और माध्यम भी. ऐसे लोग देश के इस मुश्किल समय में विवेक और बुद्धिमत्ता के नहीं बल्कि अंधता और पागलपन के प्रतीक हैं. जोश में होश खोए हुए लोग हैं.
अपनी प्रतिक्रिया और उग्रता के परिणाम और दुष्परिणाम की समझ का इन्हें बिल्कुल भी ध्यान नहीं है. इनकी प्रतिक्रियाओं और दुष्प्रचार ने भारत की छवि को न केवल धक्का पहुंचाया है बल्कि आतंकवादियों को यह अंदाजा भी लगने दिया है कि भारत को एक हमले से बुरी तरह आतंकित किया जा सकता है.
यह प्रतिक्रिया आतंकवादियों को और अधिक हमले के लिए प्रेरित करेगी. वे यहां वहां हमले करके भारत को दहशत से भर देने को अपनी एक बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश करेंगे.
नवजोत सिंह सिद्धू पर यह हमला नया नहीं है. जब से वे भारतीय जनता पार्टी छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुए हैं और कांग्रेस ने उन्हें पंजाब ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर महत्व और मंच दिया है तब से उन पर हमले का जैसे बहाना ढूंढा जाता है. रेल हादसे में उन्हें और उनकी पत्नी को निशाना बनाया गया था. करतारपुर कॉरिडोर के बाद भी उन पर ऐसे हमले हुए थे.
देखने में यह आता है कि उन पर हमले एक ख़ास ढंग और दृष्टि से होते हैं. ये दृष्टि और ढंग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों की होती है जो अपने विरोधियों को अकारण बदनाम करके ठिकाने लगाने के लिए तजवीज़ की गई है और जो उनके ‘बड़े काम’ की साबित भी हो रही है.
सोशल मीडिया ने इस तरह के बदनामी अभियानों के लिए सहज और सुलभ मंच मुहैया कराया है जहां सामान्यतया बिना किसी प्रमाण और उत्तरदायित्व के हैशटैग अभियान चलाए जा सकते हैं. किसी के बारे में कुछ भी प्रचारित और तथ्य-सत्य के रूप में स्थापित किया जा सकता है.
ऐसे में यह मानना गलत न होगा कि मूलत: संघ और इसके अनुषांगिक संगठनों के लोग और उनके प्रचार के प्रभाव में आये वैचारिक रूप से ढुलमुल लोग सिद्धू को विशेष रूप से हानि पहुंचाना चाहते हैं और इसी हानि के उद्देश्य से बिना सिर-पैर के राक्षसीकरण के अभियान चलाये जा रहे हैं.
जब एक बार समान विचार वाली प्रोफाइलों से दुष्प्रचार अभियान का श्रीगणेश हो जाता है तो तुरंत प्रतिक्रिया देने के मोह में लोग न वास्तविकता को जानना चाहते हैं और न उसके परिप्रेक्ष्य को. परिणाम की कौन कहे!
सोशल मीडिया में यह प्रवृत्ति बन गई है. सिद्धू के प्रसंग में भी यही प्रवृत्ति दोहराई गई. हो सकता है कि यदि लोगों ने सिद्धू के विचारों को धैर्य से सुना होता और उस पर शांत होकर सोचा होता तो और उनकी राजनीतिक साख पर विचार किया होता तो ऐसी निराश और हताश करने वाला दुष्प्रचार अभियान न चला होता.
इसलिए यहां आगे के विश्लेषण से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि आतंकी हमले के बाद नवजोत सिंह सिद्धू ने वास्तव में कहा क्या था?
उन्होंने कहा था, ‘आतंकवादी का न कोई देश, न कोई ईमान, न कोई मज़हब होता है.’ पाकिस्तान आतंकवाद को पालता है, संरक्षण देता है. भारत के प्रति वह शत्रुता का भाव भी रखता है. इसलिए विश्वभर में पाकिस्तान की छवि एक आतंकपोषक देश की बनी है.
इसके बावजूद अंतरराष्ट्रीय दबाव में वह आतंकवाद विरोधी समझौतों और वार्ताओं में शामिल भी होता रहा है. स्वयं आतंकवाद से पीड़ित भी रहा है.
इसलिए, सिद्धू का यह कहना कि आतंकवाद का कोई देश नहीं होता पाकिस्तान को क्लीनचिट देने से अधिक उसके भीतर शांति और सद्भाव चाहने वाली शक्तियों की उपस्थिति का रेखांकन है.
इसी उपस्थिति के कारण बातचीत और समझौतों के रास्ते खुलते हैं. भारत सरकार भी एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र-राज्य के रूप में पाकिस्तान के इस रूप पर भरोसा भी करती रही है और आशा भी.
भले ही इसके कोई अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आए हैं लेकिन इसका कोई विकल्प भी नहीं है. युद्ध से समस्या का समाधान संभव नहीं है. यह सभी विशेषज्ञ मानते हैं. अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर बस यात्रा और अन्य आतंकवाद विरोधी वार्ताओं का आधार यही मान्यता रही है कि पाकिस्तान आतंकवाद के मामले में बातचीत और सहयोग करने को तैयार है.
सिद्धू ने कुछ भी नया नहीं कहा फिर भी उन्हें निशाना बनाया जा रहा है. संघ प्रमुख ने पाकिस्तान को भाई कहा और शांति वार्ताओं पर बल दिया लेकिन उनकी कहीं भर्त्सना और निंदा तो दूर कोई आलोचना भी नहीं हुई.
कल्पना की जा सकती है कि यदि सिद्धू ने भाई कह दिया होता या बिना पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के प्रधानमंत्री की तरह पाकिस्तान चले गए होते तो कैसा हंगामा बरपा होता.
इसके अलावा सिद्धू ने जो कहा वह दुनियाभर में आतंकवाद विरोधी राजनीति और राजनय की सर्वस्वीकृत और औपचारिक समझ का हिस्सा है कि आतंकवाद का कोई धर्म, जाति या ईमान नहीं होता. इसमें भी ऐसा कुछ नहीं है जो भारत की सरकारी समझ और स्टैंड के अनुरूप न हो. और, जिसे स्वयं भाजपा की सरकारें न मानती रही हों.
सिद्धू ने आतंकवाद पर केवल शांति वार्ता पर बल नहीं दिया है. उन्होंने कहा कि ‘नदी के दो किनारों की तरह’ शांति वार्ताएं और सैन्य अभियान साथ-साथ चलने चाहिए. ‘अच्छे लोगों’ के साथ वार्ता और ‘बुरे लोगों’ के साथ ‘लोहा लोहे को काटता है’ के अनुसार कड़ी-से-कड़ी सैन्य कार्रवाई.
जाहिर है, उनका यह मत भी सरकारी समझ से अलग नहीं है. सरकार बातचीत और सैन्य कार्रवाई दोनों करती रही है.
इसके अतिरिक्त सिद्धू ने देश के साधारण नागरिक की तरह आतंकवादी हमले की निंदा की, इसके लिए ज़िम्मेदार लोगों पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई की मांग की.
सामान्य भारतीयों की तरह अपना दुख और क्षोभ प्रकट किया. हताहत सैनिकों के प्रति श्रद्धांजलि और उनके परिजनों के प्रति संवेदना भी प्रकट की. इसमें भी ऐसा कुछ नहीं है जिसे असंवेदनशील, अपमानजनक और असंसदीय कहा जा सके.
सिद्धू के पूरे बयान पर विचार और उसका विश्लेषण करने से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा जो देश के हितों और भावनाओं के अनुरूप न हो.
बस, प्रायोजित उन्माद और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के उद्देश्य से चलाए गए आंदोलनों की अंधता और अविवेक के विपरीत उनमें विवेक और बुद्धिमत्ता तथा धैर्य और परिणाम-चिंता दिखाई देती है.
आतंकवाद पर भारत की राष्ट्रीय नीति का प्रतिनिधित्व सिद्धू के बयान में ही होता है, इन अंध अभियानों में नहीं. आतंकवाद के विरुद्ध भारत की बुद्धिमत्ता और शांतचित्तता के प्रतीक हैं. जिसके पक्ष में खड़े होने और लड़ने की आवश्यकता है.
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(यह लेख 20.02. 2019 को द वायर में प्रकाशित हुआ था। लिंक नीचे है।)