सोमवार, 24 सितंबर 2012

धर्मनिरपेक्षता का छद्म और सत्ता का पद्म



धर्मनिरपेक्षता का छद्म और सत्ता का पद्म

 आनन्द पाण्डेय

इधर जब से संघ परिवार नरेन्द्र मोदी को शीर्ष पर स्थापित करने की सुगबुगाहट दे रहा है तब से न केवल भाजपा के भीतर नये-नये समीकरण बन-बिगड़ रहे हैं बल्कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के भीतर से भी प्रतिक्रियाएं रूक-रूक कर आ रही हैं। खासतौर से जनता दल एकीकृत नेता नीतीश कुमार की तरफ से। उन्होंने साफ कर दिया है कि मोदी उनकी पार्टी के लिए प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार्य नहीं हैं। बिहार विधान सभा के पिछले चुनावों में उन्होंने भाजपा के सामने यह शर्त रख दी थी कि मोदी को बिहार में भाजपा और जदयू के लिए प्रचार के लिए न बुलाया जाय। यह शर्त भाजपा को माननी पड़ी थी।

लालकृष्ण आडवाणी को अनुपयोगी मानकर संघ परिवार ने अपने को लगभग नेतृत्व विहीन साबित कर दिया है, ऐसे में उसके लिए नरेन्द्र मोदी से ज्यादा वोट खींचने वाला नेता कोई और दिखाई नहीं दे रहा है। एक नेतृत्व पर इस तरह दांव लगाने की तैयारी यह भी साबित करती है कि संघ परिवार की सांगठनिक शक्ति छीज गई है। नीतीश की शर्त संघ परिवार की पूरी रणनीति के ही खिलाफ बैठ रही है। ऐसे में क्या वह मोदी की बजाय किसी और विकल्प पर विचार कर सकता है या फिर एक नेतृत्व के लिए अपनी गठबंधन शक्ति को ही बिखरने देगा। अभी तक मोदी के नाम पर शायद ही एनडीए के अन्य घटकों ने भी कोई अनापत्ति दिखाई हो। मतलब, नीतीश की शर्त के साथ और संभावित सहयोगी दल भी आ सकते हैं। यह संकट जैसे-जैसे चुनाव करीब आएंगे वैसे-वैसे गहरा सकता है। यदि इसका समय पर समाधान नहीं निकाला गया तो राहुल गांधी सारे समीकरणों पर पानी फेर देने में कामयाब हो सकते हैं। अगर यूपीए उन्हें अपना उम्मीदवार घोषित करती है।

व्यावहारिक राजनीति के स्तर पर नीतीश की शर्त के पीछे यह समझ काम कर रही है कि एक सांप्रदायिक दल का नेता अगर उस पर सांप्रदायिक दंगों के आरोप हों तो वह विरोध का पात्र है लेकिन उस दल के साथ और ऐसे नेता के साथ सहयोग किया जा सकता है जिस पर ऐसे आरोप न हों। मतलब यह कि सांप्रदायिक व्यक्ति होता है विचारधारा नहीं, उस पर आधारित संगठन नहीं। हो सकता है कि नीतीश भाजपा को एक धर्मनिरपेक्ष दल न मानते हों और फिर भी उसके साथ गठबंधन की मजबूरी को इस बात से न्यायोचित ठहराना चाहते हों कि वह विवादास्पद मुद्दों को तात्कालिक रूप से एजेण्डे से बाहर रखेगी। इस तरह के राजनीतिक सिद्धांत को गुण खाने और गुलगुले से परहेज करना ही कहेंगे।

लेकिन, व्यावहारिक और सैद्धांतिक दोनों स्तरों पर नीतीश की राजनीति आपत्तिजनक है। उनका इस बात के लिए भले की विरोध नहीं किया जा सकता है कि वे भाजपा से गठबंधन तो चला रहे हैं तो उसके एक नेता नरेन्द्र मोदी के साथ आने से क्यों कतरा रहे हैं। लेकिन यह सवाल तो पूछा ही जा सकता है कि उनकी धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता कहां थी जब गुजरात दंगे हो रहे थे तब आप भाजपा नीत केन्द्रीय मंत्रिमंडल की शोभा बढ़ा रहे थे, कभी मोदी की तरह ही अछूत समझे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में पिछला आम चुनाव लड़ रहे थे। उनके साथ आपका समीकरण इतना मजबूत है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपनी रथयात्रा को किसी भाजपा शासित राज्य की बजाय बिहार से शुरू कर रहे थे और आप भी हरी झंडी दिखा रहे थे। नीतीश को दिक्कत इस बात से नहीं है कि वे सांप्रदायिक हिन्दुत्व के साथ समझौता कर चुके हैं। दिक्कत इस बात से है कि जिस समझौते के बावजूद मुसलमानों के वोट उन्हें मिलते रहे हैं उस पर उदारवादी नेतृत्व की कलई चढ़ी हुई थी। लेकिन मोदी का क्या करें? वे अपने ऊपर उदार होने या दिखने की शर्म भी नहीं दिखा रहे हैं! वे आडवाणी की तरह जिन्ना पर अपनी टिप्पणी के सहारे दूसरे वाजपेयी भी नहीं बनना चाहते हैं। बन जाने की कोई कोशिश भी करते दिखें तो भी नीतीश कुछ हिम्मत बांधें! सिद्धांतहीन तो बन सकते हैं लेकिन मुसलमानों को नाराज कर आत्महत्या कैसे कर लें! जहां तक निभ सकती है, निभा ही रहे हैं। मोदी से भी निभा सकते थे लेकिन मुसलमानों के मतों के बिना बचे कैसे रहेंगे? आखिर मोदी से उनकी अदावत तो वैसी है नहीं जैसी मोदी की संजय जोशी से है!

नीतीश कुमार और उनके समानधर्मा नेता कमल के लिए नहीं, सत्ता के पद्म के लिए छद्म धर्मनिरपेक्ष बनने को मजबूर हुए। कहना न होगा, वह पद्म उन्हें मिला भी। और खूब मिला। अवसरवादी राजनीति होती ही वह है जो मौके का लाभ तत्काल ता उठा ले। उसके लिए पाखंड और छद्म सब फैला ले लेकिन उसका दूरगामी परिणाम तो देश की जनता और उसकी संस्कृति-संस्थाओं को लबे समय के लिए परेशान करता रहता है। कहने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी उदार हिन्दू नेता थे, सांप्रदायिक नहीं थे लेकिन थे तो विभिन्न रूपांें में व्याप्त हिन्दुत्ववादी सांप्रदायिक संगठनों और विचारधारा के शिखर पुरूष। उनके समय में ही गुजरात दंगे हुए। वे देश के प्रधानमंत्री थे। क्या उनका फर्ज सिर्फ इतना ही था कि वे बस एक बयान दे दें कि मोदी ने राजधर्म नहीं निभाया? क्या वे मोदी को बर्खास्त नहीं रक सकते थे। और शिखर पुरूष होकर भी ऐसा न कर सके तो स्वयं तो पद त्याग देने का काम बस इस आत्मावलोकन के साथ कर देते कि मोदी ने राजधर्म नहीं निभाया तो मैं ही कहां निभा पाया हूं। बाबरी मस्जिद ढहने के बाद उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार समेत चार राज्यों की भाजपा सरकारों को बर्खास्त करने का नरसिंह राव का उदाहरण बहुत पुराना तो नहीं था!

असल में वाजपेयी के इर्द-गिर्द एक छद्म रचा गया था। जिसके लिए संघ परिवार तो जिम्मेदार तो था ही राजग का हिस्सा बने बहुत-से तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल और उसके प्रमुख नेता भी थे। इस छद्म के भी पीछे वही सत्ता का पद्म था। नीतीश कुमार को एक बार फिर ऐसा ही छद्म चाहिए। जाहिर है, मोदी वह छद्म नहीं हा सकते। वह बिना छद्म के पद्म-पराग का सेवन कर रहे हैं और उन्हें उम्मीद है कि वे और अधिक वृहत्तर स्तर पर ऐसा सुख भोगते रहेंगे। आखिर, उनकी विशिष्टता तो यही है जिसकी वजह से वे आज नहीं तो कल भाजपा के शीर्ष पुरूष बनेंगे, कि वे एक कट्टर हिन्दू नेता हैं जो मुसलमानों को सबक सिखाने का माद्दा रखते हैं!

जे भी हो, बहरहाल असंख्य दांव-पेचों में उलझी राजग की राजनीति को समझने का दावा करना असल में भविष्यवाणी करने जैसा है। लेकिन नीतीश की राजनीति और शर्त को एकसाथ रखकर देखने पर यह स्पष्ट होता है कि समकालीन भारतीय राजनीति धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता के शास्त्रीय वर्गीकरण से हटकर अब पाखंड और अवसरवाद के रूप में अपने को स्थापित कर चुकी है। यह स्थापना तभी हो गई थी जब कई धर्मनिरपेक्ष दलों ने भाजपा के साथ सरकार बनाने का निर्णय लिया था। उसी दिन सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता की शास्त्रीय राजनीतिक समझ बिखर गई थी। भाजपा के साथ सहयोग के लिए आगे आना असल में इस समझ पर ही पानी फेरना था। साथ ही साथ धर्मनिरपेक्षता राजनीति में गौण हो जाती है लेकिन नीतीश की शर्त जिस सामयिक बिडंबना को उजागर करती है वह इस सत्य से जुड़ी है कि बिहार में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बिना जदयू की राजनीति पराकाष्ठा पर नहीं पहुंच सकती है। अब इस बहुदलीय लोकतंत्र में वोटों का बंटवारा इस तरह हो गया है कि नीतीश का काम न तो भाजपा के बिना चल सकता है और न ही मुसलमानों के बिना। तब भाजपा को अपने साथ समेटे रहने के बाद भी नीतीश मुसलमानों को कैसे बताते रहें कि वे अभी तक धर्मनिरपेक्ष हैं? मोदी असल में नीतीश को बस यही बताने का मौका दे रहे हैं। और नीतीश इस मौके को नहीं छोड़ना चाहते। बिहार में मोदी का चुनावों में न आने देने से उन्हें इस शर्त की लाभ-हानियों का भी हिसाब समझ में आ चुका होगा। लेकिन नीतीश कुमार और जदयू को मोदी विरोध भर से धर्मनिरपेक्षता का पैरोकार नहीं सिद्ध किया जा सकता! असल मामला सैद्धांतिक है। व्यक्ति केन्द्रित नहीं। इसे व्यक्ति केन्द्रित बना देने से इस देश का मुसलमान नीतीश से चकमा शायद लंबे समय तक न खाए। छद्म तो एक दिन जरूर बिखरता है। बस देर है, अंधेर नहीं!

(आनन्द पाण्डेय साहित्यिक आलोचना में डॉक्टरेट हैं और राजनीतिक कार्यकर्ता होने के साथ-साथ साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर लिखते रहते हैं।)

 First published in Nation First monthly with ISSN No: 2278-7216

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