योगी आदित्यनाथ की ‘राजनीति’
JULY 17, 2010 4 COMMENTS
गोरखपुर (उ. प्र.) के सांसद आदित्यनाथ की सांप्रदायिक राजनीति का जायज़ा ले रहे हैं आनंद पांडे. श्री पांडे राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और जेएनयू में शोध छात्र हैं.
पिछले कुछ सालों से पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और उसके आस-पास के जिलों में हिन्दू सांप्रदायिक राजनीति एक नए प्रकार के प्रयोग के दौर से गुजर रही है. जाति, धर्म, अपराध और साम्प्रदायिकता के मिश्रण की इस राजनीति के नेता हैं गोरखपुर स्थित गोरखनाथ मठ के उत्तराधिकारी तथाकथित ‘बाबा’ योगी आदित्यनाथ. यों तो आदित्यनाथ भाजपा के टिकट पर गोरखपुर से निर्वाचित सांसद हैं लेकिन इस क्षेत्र में वे भाजपा के एजेंडे पर नहीं बल्कि अपने एजेंडे पर चलते हैं.
यह एजेंडा है तो हिंदुत्व का ही लेकिन मठ के पूर्ववर्ती नेताओं के विपरीत आदित्य नाथ की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और उनके आक्रामक स्वाभाव ने इसे नयी धार दी है. यह धार है हिंदुत्व की राजनीति को और अधिक जहरीली और आक्रामक बनाने वाली. गोरखपुर और उसके आस -पास के जिलों में छोटे-छोटे सामान्य झगड़ों और आपराधिक मसलों को सांप्रदायिक रंग देकर आदित्य नाथ ने समाज को अभूतपूर्व रूप से विभाजित और हिंसाग्रस्त किया है.
आदित्यनाथ भाजपा के टिकट पर सिर्फ चुनाव लड़ते हैं और उसके सांगठनिक गतिविधियों में हस्तक्षेप करते हैं तथा उसके पदों पर अपने समर्थकों को बैठाते हैं लेकिन अपनी गतिविधियों को वे स्वतंत्र रूप से गोरख नाथ मठ के उत्तराधिकारी के रूप में हिन्दू युवा वाहिनी और हिन्दू महासभा के बैनर तले चलाते हैं. आदित्यनाथ हिन्दू युवा वाहिनी के संरक्षक हैं. इसके अलावा हिन्दू जागरण मंच, केसरिया सेना, केसरिया वाहिनी, कृष्ण सेना आदि अनेक ऐसे संगठन हैं जो उनके अग्रिम संगठन के रूप में काम करते हैं. और भी कई संगठन हैं जो समाज के अलग-अलग वर्गों को संगठित करने के क्रम में तैयार किये गए हैं, जैसे फुटपाथ पर गुजारा करने वालों को ‘ राम प्रकोष्ठ’ के अंतर्गत और जो लकड़ी या बांस का काम करते हैं उन्हें ‘बांसफोड़ हिन्दू मंच’ के बैनर तले संगठित किया जाता है. जाहिर है कि, इस तरह के जन संगठन बनाने की प्रेरणा उन्होंने आरएसएस से ली है. इनकी विचारधारा और राजनीतिक एजेंडा भी वही है जो आरएसएस का है लेकिन एक व्यक्ति की महत्वाकांक्षा कैसे एक बड़े एजेंडे को अपनी शैली से प्रभावित करती है और उसमें अपनी जगह बनाती है, आदित्य नाथ की राजनीति इसी दास्ताँ को बयाँ करती है.
आज देखते हैं तो अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि आदित्य नाथ और उनके कुछ पूर्वजों ने एक प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष साधना-संप्रदाय को पथभ्रष्ट और पतित करके सवर्णवादी हिन्दू सांप्रदायिक और क्षेत्रीय फासीवादी राजनीतिक संगठन में बदल दिया है. आदित्य नाथ की असली ताकत और पूँजी है ‘धर्म’ और उसका आश्रय स्थल है गोरखनाथ मठ. मठ की धार्मिक साख और आर्थिक पूँजी इतनी अधिक है कि उसके आधार पर उस क्षेत्र में बड़े – से -बड़ा सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन किया जा सकता है. गोरख नाथ मंदिर की हिन्दू जनता में बड़ी प्रतिष्ठा है, इसके मुख्य पुजारी और महंत होने से उनकी भी प्रतिष्ठा वैसी ही है. उनकी दूसरी सबसे बड़ी ताकत है हिंदुत्व का एजेंडा और भाजपा. इस मठ का हिंदूवादी राजनीतिक संगठन हिन्दू महासभा से सम्बन्ध आजादी से पहले से चला आ रहा है. १९५२ में संपन्न हुए पहले आम चुनावों से लेकर अब तक के चुनावों में इस मठ के प्रतिनिधि कुछेक बार को छोड़कर हमेशा लड़ते रहे हैं. तत्कालीन महंत दिग्विजय नाथ ने १९५२, १९६२ का चुनाव लड़ा किन्तु उन्हें पहली जीत १९६७ के चुनावों में मिली. महंत अवैद्य नाथ ने चुनाव लड़ा था. इसके बाद १९८९ और १९९१ में वे लड़े और जीते भी. मठ के तीसरी पीढ़ी के नेता १९९६, १९९८, १९९९ , २००४ और २००९ के चुनाव लड़ते और जीतते आ रहे हैं. गोरखपुर सीट के चुनावी इतिहास को देखने पर यह स्पष्ट होता है कि मठ की राजनीतिक साख तभी बढ़ी जब उसने भाजपा के साथ अपने आपको जोड़ा.
योगी आदित्यनाथ का राजनीतिक अंदाज़ बाल ठाकरे और नरेन्द्र मोदी की तरह का है. उनकी हिदू युवा वाहिनी भारत की शिव सेना और जर्मनी के हिटलर की ‘स्टॉर्म ट्रुपर’ की पद्धति की है. यों तो योगी आदित्य नाथ इसे सांस्कृतिक संगठन कहते हैं लेकिन इस इलाके में इसकी छवि बेरोजगार और असामाजिक नौजवानों की टोली की है. ऐसे ही युवाओं को संगठित करके महाराष्ट्र में बाल ठाकरे ने शिव सेना को एक राजनीतिक ताकत बनाया. योगी ने भी बाल ठाकरे की तर्ज़ पर बेरोजगार और छोटे-मोटे अपराधियों को शामिल कर युवा वाहिनी का गठन किया है. बाल ठाकरे के पास धार्मिक ताकत नहीं थी जबकि योगी के पास धार्मिक साख है. इससे पूर्वांचल में सांप्रदायिक और फासीवादी राजनीति का खतरा बढ़ जाता है. वाहिनी योगी की राजनीतिक ताकत को आधार प्रदान करती है और राजनीतिक अपसंस्कृति को बढाती है. इसे सांस्कृतिक संगठन कहना सफेद झूट है. इस संगठन पर दंगे भड़काने के अनेक आरोप हैं. इस संगठन ने एक नारा चलाया है, ” उत्तर प्रदेश में रहना है, तो योगी-योगी कहना है.” यह नारा योगी आदित्य नाथ के व्यक्तित्व और उनकी राजनीति की आक्रामकता और आतंक को व्यक्त करता है.किसी जुलूस इत्यादि में इस नारे और ऐसे कई और नारों को लगाते हुए योगी समर्थक जब चलते हैं तो एक प्रकार की दहशत का माहौल बन जाता है.
नरेन्द्र मोदी और गुजरात का उनका सांप्रदायिक प्रयोग आदित्यनाथ को काफी आकर्षक लगता है तभी तो वे बार-बार विभिन्न क्षेत्रों को गुजरात बना देने की बातें करते हैं. गौतम बुद्ध की जन्म स्थली कुशी नगर के पडरौना में अल्पसंख्यकों को लूटने और उनका घर और धन लूटने-जलाने के बाद जो नारा लगा था उससे योगी की इस महत्वाकांक्षा का पता चलता है. नारा था-” उत्तर प्रदेश गुजरात बनेगा, पडरौना शुरुआत करेगा.” उत्तर प्रदेश जाति और धर्म की राजनीति के लिए कुख्यात हो गया है. बाबा धर्म के साथ -साथ जाति की भी राजनीति करते हैं, ठाकुर जाति के हैं और ठाकुरों की हर सही और गलत बात का समर्थन करते हैं. यही नहीं उनके लोग जातीय संघर्षों में भी सक्रिय भूमिका निभाते हैं.कोई साधु स्वभाव नेता जाति और धर्म की राजनीति नहीं कर सकता लेकिन बाबा करते हैं. अगर उन्हें भी साधारण नेताओं की तरह ही राजनीति करनी है तो जनता की धार्मिक आस्था का शोषण क्यों करते हैं.
जाहिर है, आदित्य नाथ की राजनीति वैचारिक गिरावट और सैद्धांतिक दिवालियेपन का प्रतीक है जो अपने समय की राजनीतिक और सांस्कृतिक बिडम्बना को उजागर करती है. नाथ सम्प्रदाय की परम्परा पर एक नजर डालने से यह बिडम्बना बोध और गहरा हो जाता है. नाथ संप्रदाय सामाजिक रूप से प्रगतिशील और समतावादी तथा धार्मिक रूप से समरस संप्रदाय था. एक ओर जहाँ वह वर्ण व्यवस्था विरोधी था वहीं दूसरी ओर वह सभी धर्मों के मानने वालों के लिए समान रूप से खुला था.अपने इसी स्वाभाव के कारण नाथ संप्रदाय निचली जातियों में अधिक लोकप्रिय था. १९२१ की जनगणना के अनुसार मुसलमान योगियों की संख्या ३११५८ थी जो नाथ पंथियों की कुल संख्या का करीब चालीस प्रतिशत थी. इसके साथ-साथ इस संप्रदाय का स्वरुप न केवल अखिल भारतीय था बल्कि अंतर्राष्ट्रीय भी था.
आज गोरखपुर एक शहर है जिसके मुहल्लों और बाज़ारों के नाम हिन्दूकरण किया जा रहा है. मियां बाज़ार का माया बाज़ार, अलीनगर का आर्य नगर, उर्दू बाज़ार का हिंदी बाज़ार के रूप में नामकरण किया जा गया है. हिन्दुओं ने इस नामकरण को तो आसानी से स्वीकार कर लिया लेकिन मुसलमानों ने नहीं स्वीकार किया है. फलस्वरूप एक ही बाज़ार का नाम हिन्दू दूकानदार ने हिंदी बाज़ार लिखा रखा है तो उसके पड़ोसी मुसलमान दूकानदार ने उर्दू बाज़ार. पहली नजर में यह दृश्य हास्यास्पद लगता है लेकिन जल्द ही यह ऐतिहासिकता के साथ एक खिलवाड़ और उससे भी अधिक किसी संस्कृति अथवा किसी दिल के टूटने की पीड़ा का एहसास करा देता है. इस बर्बादी के लिए दोषी है, आदित्य नाथ की जहरीली राजनीति.
author’s email: anandpandeymail@gmail.com
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